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आँख की संरचना एवं कार्य (Structure and Functions of Eye):

मानव अपनी आँखों का उपयोग सबसे अनमोल वस्तु के रूप में करता है, जितना वह अपनी आँख के लिए संवेदनशील होता है, उतना शायद किसी अन्य अंग के प्रति नहीं होता क्योंकि सभी देखने से जुड़े अनुभव मनुष्य को आँख के द्वारा ही होते हैं ।

मनुष्य की नेत्र की संरचना कैमरे की भांति कार्य करती है । आँख के गोलक का औसत व्यास 25 मिमी तथा भार 7 ग्राम के लगभग होता है । मनुष्य के चेहरे पर नाक के ऊपर दोनों ओर ललाट के नीचे दो छिद्र होते हैं, जिनको आँख का कोटर (Orbits) कहा जाता है ।

आँख के गोलक इन्हीं गड्डों में रहते हैं । इन्हें अपने स्थान पर दृढ़ता से स्थिर रखने के लिए प्रत्येक आँख में छोटी-छोटी छ: पेशियाँ होती हैं । ये पेशियाँ लचीली (Flexible) होती हैं । इनकी सहायता से हम आँखों को इधर-उधर घुमा सकते हैं ।

सामने से आँखें पलकों द्वारा सुरक्षित रहती हैं । पलकों के किनारे बरौनियाँ (Eyelashes) होती हैं, जो आँख की खुली अवस्था में रक्षा करती हैं । पलक के ऊपर की ओर आँख पर एक चिकनी पारदर्शक और कोमल झिल्ली चढ़ी रहती है । यह नेत्राच्छिनी (Conjunctive) कहलाती है । यह झिल्ली पलकों के किनारे पर त्वचा से मिली होती है । इस बात को चित्र द्वारा स्पष्ट किया गया है ।

आँख की आन्तरिक संरचना (Inner Construction of Eye):

आँख को चीरने से पता चलता है, कि उसकी दीवार तीन तहों (Layers) से बनी होती है, और इसमें दो कोष्ठ (Chambers) होते हैं, जिनमें पारदर्शक द्रव भरा रहता है ।

आँख की आन्तरिक तहें निम्न प्रकार हैं:

(i) श्वेत पटल और कनीनिका (Sclera):

आँख की श्वेत पटल कड़ी अपारदर्शक (केवल सामने के भाग को छोड्‌कर) रेशेदार झिल्ली होती है । यह नेत्र पटल के 5/6 भाग को घेरे रहती है । सामने की ओर से अपारदर्शी कनीनिका का इसी स्थान पर उभरा हुआ भाग है । इस भाग से प्रकाश नेत्र में प्रवेश करता है । श्वेत पटल का कार्य आँख के भीतरी भाग की सुरक्षा करना एवं उसकी गोलाकृति को बनाये रखना है ।

(ii) मध्य पटल एवं उपतारा (Choroid):

श्वेत पटल के नीचे दूसरी सतह मध्य पटल कहलाती है । यह भाग अपारदर्शी एवं भूरे रंग का होता है । इसमें अनेक रक्त नलिकाएँ होती हैं । मध्य पटल कनीनिका के पास आगे आकर माँसपेशियों के रूप में परिवर्तित होकर पाक्ष्म पेशियों  का रूप धारण कर लेती है ।

मध्य पटल में ‘अन्तकेरोटिड’ धमनी से निकलने वाली नेत्र शाखा आती है । इस पटल में पहुँचकर धमनी अनेक वाहिनियों तथा उनसे भी कहीं अधिक सूक्ष्म कोशिकाओं में बँट जाती है । इस प्रकार से मध्य पटल पूर्ण रूप से शिराओं एवं कोशिकाओं के जाल से भरे होने के कारण संवहनीय है ।

इस पटल में रंग कण युत्ह रगीन कोशिकाएं भी होती हैं । इस पटल का रंग भूरा, काला या नीला रहता है । मध्य पटल सयोजी ऊतकों से बना होता है । इस पटल की रक्त कोशिकाओं से ही, आँख के अन्य पटलों का भी भरण-पोषण होता है । इस पटल का प्रमुख काम आँख के भीतरी कक्ष को, जिममें प्रकाश की किरणें, रेटिना की प्लेट पर चित्र बनाती हैं, पूर्णत: अन्धकारमय बनाना है ।

इसके पिछले भाग में बाह्य पटल के समान ही छिद्र हैं, जिसमें से होकर दृष्टि-तंत्रिका भीतर प्रवेश करती है । सामने की ओर कार्निया के संगम-स्थल पर मध्य पटल, भीतर की ओर मुड़कर, वृत्ताकार परितारिका (Iris) बनाता है । परितारिका के मध्य में एक छोटासा गोलाकार स्थान (Aperture) होता है । इसी रिक्त स्थान के छिद्र को ‘तारा’ (Pupil) कहते है ।

परितारिका रंजित पटल का ही अगला भाग है । रंजित पटल उस स्थान के बाद जहाँ से परितारिका शुरू होती है, कुछ सिकुड़-सिकुड़ा सा रहता है । फलत: एक गोलाकार पिण्ड बन जाता है, जिसे रोमक पिण्ड कहते हैं । रोमक पिण्ड के अग्र भाग में रोमिला पेशी लगी रहती है । इसी स्थान से कुछ निलम्बी-स्नायु (Suspensory Ligaments) भी जुडे रहते हैं ।

(iii) दृष्टि पटल (Retina):

दृष्टि पटल, अक्षिगोलक के सबसे भीतर का पटल है । यह आँखों के पश्चक (Posterior Chamber) में अवस्थित है । इसकी रचना काफी जटिल होती है । इसमें दो स्तर होते है । बाहर की ओर महीन रंग का स्तर तथा भीतर की ओर मोटा तथा जटिल तंत्रिका संवेदी स्तर होता है । इस स्तर में फैले सभी स्नायु (Optic Nerve) नेत्र गोलक की दीवार में एक चौड़े छिद्र से निकलकर मस्तिष्क को जाते हैं ।

इस छिद्र को दृष्टि छिद्र भी कहते हैं । स्पष्ट है कि रेटिना की अनुपस्थिति के कारण दृष्टि छिद्र वाला नेत्र दृष्टिज्ञान में भाग नहीं लेता है । अत: इसे अन्ध स्थान (Blind Spot) कहते हैं । अन्ध स्थान से कोई भी सूचना मस्तिष्क तक नहीं पहुंचती है । अनय स्थान पर बिम्बन बनने का कारण यह है, कि इस स्थान पर नाडी कोशिकाएं अर्थात् शंकु एवं शलाका, पूर्णत: अनुपस्थित है, और यहाँ पर केवल सूत्र ही रह जाते हैं ।

इस सन्दर्भ को निम्न चित्र द्वारा और स्पष्ट किया जा सकता है:

शलाका एवं शंकु (Rods and Cones) ही दृष्टि के संग्राहक (Receptors of Sight) अंग होते है, तथा प्रकाश जो उन पर पहुँचता है, वह आवेग (Impulses) न पैदा करता है, जिनकी सूचना (Transmission) तत्रिकाओं तक हो जाती है । यह आवेग दृष्टि तंत्रिका के द्वारा मस्तिष्क के दृष्टि केन्द्र तक जाते हैं । जहाँ दृष्टि-धारण (Visual Impression) पैदा होते हैं ।

शलाका एवं शकु में भेद निम्न बिन्दुओं के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है:

(1) संरचनात्मक भिन्नता (Structural Impression):

शंकु आकार में छोटे एवं मोटी संरचना वाले तत्व होते हैं, जबकि दण्ड देखने में पतले एवं लम्बी संरचना वाले होते हैं । दण्डों में अन्धकार के समय एकत्र होने वाला एक पदार्थ क्रियाशील रहता है । इस पदार्थ को दृष्टि धूमिल (Visual Purple) कहते हैं । शंकु दण्डों की तरह एकत्र न होकर स्वतन्त्र होते हैं ।

(2) क्रियात्मक भिन्नता (Functional Difference):

शंकु अधिक प्रकाश में क्रियाशील होते हैं, जबकि दण्ड कम प्रकाश में । जिन व्यक्तियों के दण्ड शक्तिहीन हो जाते हैं, उन्हें रात्रि में दिखायी नहीं पड़ता क्योंकि ये मन्द प्रकाश तरंगों से उत्तेजित एवं क्रियाशील हो जाते हैं ।

(3) वितरणात्मक भिन्नता (Distributional Difference):

मनुष्य की आँख में शंकुओं की अपेक्षा दण्ड बहुत अधिक संख्या में पाये जाते हैं । जहाँ शंकु अधिक पाये जाते हैं, उस स्थान को पति बिन्दु (Yellow Spot) कहते हैं । इसी के बीच में दबे स्थान को फोबिया या दृष्टि केन्द्र कहते हैं । जहाँ पर किसी वस्तु की आकृति अत्यन्त स्पष्ट होती है, उस स्थान को स्पष्टतम दृष्टि बिन्दु (Clearest Vision Point) भी कहा जाता है ।

अन्त: पटल का वह स्थान है, जहाँ से दृष्टि स्नायु मस्तिष्क की ओर जाते हैं, ध्वजा बिन्दु कहलाता है । उस स्थान पर दृष्टि संवेदना का एक भी सग्राहक न होने के कारण मनुष्य को कुछ भी दिखाई नहीं देता ।

दृष्टि अनुकूलन (Visual Adaptation):

दृष्टि के क्षेत्र में अनुकूलन से अभिप्राय फोटो रिसेप्टर्स (Photo Preceptors) की रिएक्टीविटी (Reactivity) एवं पुतली (Pupils) के आकार में परिवर्तन होने के कारण दण्ड (Rods) के उद्दीप्त होने तथा क्रियाशील होने में लगने वाले समय से है ।

हेच (Hecht) ने इस सम्बन्ध में प्रयोग के आधार पर स्पष्ट किया कि अनुकूलन पर प्रकाश की मात्रा के अतिरिक्त रेटिना (Retina) के उद्दीप्त क्षेत्र तथा आकार का भी प्रभाव पडता है । हैरीमैन (Harriman) के अनुसार अन्य ज्ञानेन्द्रियों में भी इस प्रकार का अनुकूलन करने की प्रभावी प्रक्रिया निहित होती है ।

दृष्टि तीक्षाता (Visual Activity):

आँख के आगे के हिस्से की अपेक्षा पीछे के हिस्से की ओर दृष्टि तीक्ष्णता अधिक होती है । इस पर प्रकाश का प्रभाव भी पड़ता है । प्रकाश की उपस्थिति में एक सीमा तक दृष्टि तीक्ष्णता बढ़ जाती है । अत: किसी वस्तु तथा उसकी पृष्ठभूमि पर दृष्टि तीक्ष्णता का प्रभाव होता है । पृष्ठभूमि का तीव्र प्रकाश भी दृष्टि तीक्ष्माता के लिए एक कारण हो सकता है । भिन्न-भिन्न रंगों की तीक्ष्णता में भी भिन्नता होती है ।

नेत्रों की देखने की कार्य-विधि (The Mechanism of Sight):

नेत्रों के देखने की कार्य-विधि पूर्णत: एक कैमरे के समान कार्य करती है, जिस प्रकार कैमरे में शटर हटाकर लेंस पर आँख लगाकर देखा जाता है, ठीक उसी प्रकार पलके खो के लिए शटर का कार्य करती हैं । प्रकाश के प्रवेश के लिए कॉर्निया (Cornea) एक खिड़की के रूप में रहता है ।

आइरिस (Iris) का पर्दा भीतर प्रवेश करने वाले प्रकाश की मात्रा को कंट्रोल करता है । लेंस से प्रकाश की किरणें फोकस करती हैं । मध्य पटल फोटो कैमरे के प्रकाशरोधक बॉक्स की काली दीवार का कार्य करता है, जिससे अक्षिगोलक के अभ्यान्तर में एक अन्धकारमय कक्ष तैयार होता है, और प्रकाश के प्रति संवेदनशील फोटोग्राफी प्लेट का कार्य ‘दृष्टि पटल’ करती हैं ।

नेत्रों का समायोजन (Accommodation of Eyes):

हमारी आँख दूर या पास की वस्तु को देखने के लिए लैस की मोटाई में परिवर्तन करती रहती है । आँख में दूरी परिवर्तन करने को जिससे वस्तु साफ दिखाई पड़े, समायोजन (Accommodation) कहलाता है । आराम की स्थिति में जब शरीर शिथिल होता है, तो इस स्थिति में आँख का लैस कुछ चपटा-सा बना रहता है ।

यह चपटा लैस दूर की वस्तुओं को देखने के लिए उपयुक्त रहता है, किन्तु जब पास की वस्तुओं को देखना होता है, तो सिलियरी बॉडी की पेशियाँ सिकुड़ जाती हैं, जिससे लचीला लेंस अधिक मोटा हो जाता है । मानव शरीर के नेत्र सिर पर आगे की ओर पास-पास स्थित होते हैं, ताकि दोनों आँख एक ही वस्तु पर केन्द्रित हो सकें । इसे द्विनेत्रीय दर्शिता (Binocular Vision) कहते हैं ।

सामान्य दृष्टि-दोष (Error of Reflection):

आँखों में अनेक प्रकार के दोष हो जाते हैं । इनमें दृष्टि वैषम्य (Astigmatism), भेंगापन, मोतियाबिन्द आदि प्रमुख हैं । किन्तु अधिकांशत: दो नेत्र दोष व्यक्तियों में पाये जाते हैं, जिनमें एक निकट दृष्टि या मायोपिया (Myopia) और दूसरा दूर-दृष्टि होता है ।

मानव के नेत्र गोलक सामान्यत: जन्म के समय लगभग 17.5 मिमी. तथा वयस्कों में 20-21 मिमी. के होते हैं । नेत्र गोलक में घुसने वाली समस्त प्रकाश किरणें कार्निया लेंस आदि पर टकराकर रेटिना से पहले ही केन्द्रित हो जाती हैं, और फिर रेटिना पर पड़ती है ।

इस प्रकार सामान्य नेत्रों द्वारा हम 10 सेमी. से 50 सेमी दूर की वस्तुओं को साफ देख सकते हैं । किन्तु कभी-कभी नेत्र गोलक के कुछ छोटे होने पर या बड़े हो जाने पर लैस सिलियरी पेशियों की लचक कम हो जाने के कारण ही निकट दृष्टिदोष या दूर दृष्टि दोष उत्पन्न हो जाते हैं ।

(1) दूर दृष्टि दोष:

इसके अन्तर्गत नेत्र गोलक के छोटे हो जाने से किरणों का केन्द्रीयकरण रेटिना से पीछे होता है, जिससे दूर की वस्तुएँ तो साफ दिखाई देती हैं, किन्तु निकट की वस्तुएँ स्पष्ट दिखाई नही देती हैं ।

इस दोष को मिटाने के लिए उत्तल लेंस (Convex) प्रयोग में लाया जाता है, जिससे किरणों की अभिबिन्दुकता बढ़ जाती है और उनका केन्द्रीयकरण रेटिना पर होता है । ये लेंस कॉर्निया द्वारा किरणों के नेत्र में प्रवेश होने से पहले ही उनको अभिबिन्दुक कर देते हैं ।

दूर दृष्टि-दोष के निम्न लक्षण (Symptoms) है:

(i) निकट की वस्तुएँ स्पष्ट दिखाई नहीं देती हैं ।

(ii) आखों से पढ़ते समय पानी बहने लगता है ।

(iii) आँखों की गुहा में तथा सिर में दर्द रहने लगता है ।

(iv) पढ़ने-लिखने, सिलाई तथा बीनने आदि बारीक कामों में अत्यधिक दिक्कतें होती हैं ।

(v) प्राय: पुस्तक को बहुत पास लाकर पढ़ना पड़ता है ।

(2) निकट दृष्टिदोष या मायोपिया:

निकट दृष्टि-दोष में प्राय: नेत्र गोलक के बड़े हो जाने पर या कार्निया अथवा लेंस के अधिक मोटा हो जाने के कारण रेटिना तथा केन्द्रित बिन्दु के बीच की दूरी बढ़ जाती है । अत: निकट दृष्टि दोष में पास की वस्तुएँ तो साफ दिखाई देती हैं, किन्तु दूर की वस्तुएँ प्राय: धुँधली दिखाई देती हैं ।

अवतल लेंस के द्वारा इस दोष को दूर किया जा सकता है । यह दोष प्राय: कम उम्र के बच्चों में भी हो जाता है । वैसे 18 -20 वर्ष की आयु के बच्चों की अस्त्रों में प्राय: यह दोष पाया जाता है ।

निकट दृष्टिदोष के निम्न लक्षण हैं:

(i) दूर की वस्तुएँ साफ नजर नहीं आती हैं, वे धुँधली दिखाई पड़ती हैं ।

(ii) टी.वी. आदि देखने में परेशानी आती है ।

(iii) आँखों के ऊपरी भागों में तथा सिर में पीड़ा-सी रहने लगती है ।

(iv) थोड़ा-बहुत पढ़ने-लिखने, सिलाई करने या बीनने का काम करने पर आँखों में पानी आना शुरू हो जाता है ।

(3) दृष्टि वैषम्य या एस्टिग्मटिज्य:

इसके अन्तर्गत कार्निया या लेंस से समस्त पृष्ठ को जाने वाली किरणें रेटिना पर एक ही स्थान पर केन्द्रित नहीं होती हैं, जिस कारण अनेक स्पष्ट बिम्ब बन जाते हैं । कॉर्निया तथा लेंस के अग्र पृष्ठ जिनके द्वारा किरणें नेत्र में प्रवेश करती हैं, गोल पृष्ठ होते हैं तथा कितने ही व्यास होते हैं ।

इन सब व्यासों के द्वारा किरणे नेत्र में प्रवेश करती हैं, तथा उनके द्वारा किरणों का वर्तन होता है । इसलिए सभी किरणों के केन्द्र गतिका पर केन्द्रित होने के लिये यह जरूरी है कि कार्निया तथा लैस के जितने भी व्यास हैं, उनके द्वारा उनका समान रूप से वर्तन हो ।

यह तभी हो सकता है, जब प्रत्येक व्यास की गोलाई या मोड़ समान हो । यदि व्यासों की गोलाई में तनिक भी अन्तर होगा तो किरणों के वर्तन में अन्तर आ जायेगा और कई अस्पष्ट बिम्ब बन जायेंगे ।

दृष्टि के सन्दर्भ में व्याख्या के पश्चात् रंग संवेदना को भी समझना उचित होगा: रंगसंवेदना (Colour Vision):

दृष्टि से सम्बन्धित रंग संवेदनाओं को रंगीन संवेदनाएँ (Chromatic Sensation) एवं रंगविहीन संवेदनाएँ (Achromatic Sensation) के रूप में विभाजित किया गया है ।

इन दोनों संवेदनाओं के अन्तर्गत रंगों की श्रेणी निम्नवत् है:

रंगीन संवेदनाएँ:

लाल, हरा, नीला व पीला, बैंगनी व नारंगी ।

रंगविहीन संवेदनाएँ:

काला, भूरा व सफेद ।

रंग की प्रमुख विशेषताएँ निम्नवत् हैं:

(i) वर्ण (Hue):

प्रत्येक रंगीन उद्दीपक का कोई न कोई वर्ण अवश्य होता है । विभिन्न रंगों से सम्बन्धित छायाओं को वर्ण कहा जाता है ।

(2) चमक (Brightness):

दूसरी विशेषता रंग की चमक है, जो कि तरंग की ऊँचाई पर निर्भर करती है । किसी भी रंग की प्रकाश तरंग की ऊँचाई जितनी अधिक होगी उसकी चमक उतनी ही अधिक होगी । उदाहरण के लिए, लाल रंग की अधिक चमक यह बताती है, कि लाल रंग प्रकाश की तरंग ऊँचाई अपेक्षाकृत और रंगों के अधिक होती है ।

रगों की चमक के अनुसार प्रकाशीय तरगों की ऊँचाई को निम्नवत् श्रेणीबद्ध किया गया है:

(3) संतृप्ति (Saturation):

किसी भी रंग की संतृप्ति उस रंग पर पड़ने वाले प्रकाश की शुद्धता पर निर्भर करती है । विभिन्न तरंगों की लम्बाई में जितनी समानता होगी उतनी ही संतृप्ति अधिक मात्रा में होगी । रंग के मुख्यत: दो प्रकार होते हैं: प्राथमिक रंग (Primary Colours) एवं गौण रंग (Secondary-Colours) ।

रंग मिश्रण (Colour Mixing):

रंग मिश्रण के नियमों की व्याख्या निम्नवत् है:

(1) पूरक रंगों का नियम (Law of Complementary Colours):

पूरक रंगों को जब एक विशेष अनुपात में मिश्रित किया जाता है, तो इससे भूरे रंग की उत्पत्ति होती है । उदाहरण के लिए, लाल-हरा तथा नीला-पीला रंग विशेष अनुपात के मिश्रण पर भूरे रंग की संवेदना उत्पन्न करते हैं ।

(2) अपूरक रंगों का नियम (Law of Non-Complementary Colours):

इन रंगों का एक निश्चित अनुपात में मिश्रण करने पर दोनों रंगों के बीच का रंग दिखायी देता है । उदाहरणार्थ-लाल एवं नीला रंग मिश्रित करने पर नीलापन लिए हुए लाल रंग (Blueih Red) की संवेदना की उत्पत्ति होती है ।

(3) मिश्रित रंगों के मिश्रण का नियम (Law of the Mixture of Mixed Colours):

समस्त रंगों को एक विशेष अनुपात में मिलाने पर भूरे रंग की सवेदना होती है । उक्त रंगो को जब रंग मिश्रण उपकरण पर मिलाकर हिलाया जाता है, तो इनसे दो स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं-मन्द एवं तीव्र स्थिति । मन्द गति की स्थिति में झिलमिलाहट (Flickering) तथा तीव्र गति की स्थिति में विलयन (Fusion) की अवस्थाएँ उत्पन्न होती हैं ।

रंग विरोध (Colour Contrast):

रंग विरोध की स्थिति अग्र तालिका के अनुसार है:

उत्तर प्रतिमाएँ (After Images):

उत्तर प्रतिमा दृष्टि संवेदनाओं से सम्बन्धित है, एवं बहुत ही आर्कषक छवि का द्योतक है । दृष्टि क्षेत्र से दृश्यात्मक उद्दीपक के हटने की अवस्था में इस उद्दीपक का प्रभाव या छवि कुछ समय तक ज्यों कि त्यों रहती है । इस प्रभाव को ही उत्तर प्रतिमा (After Image) के नाम से जाना जाता है ।

उत्तर प्रतिमाएँ दो प्रकार की होती हैं, जो कि निम्नवत हैं:

(i) सम उत्तर प्रतिमाएँ (Positive after Image):

इस श्रेणी में वे प्रतिमाएँ आती हैं, जो वर्ण संतृप्ति एवं द्युति के रूप में मूल उद्दीपक के समान होती है । तम स्मृकूलित आँखों के संक्षप्त तीव्र उद्दीपन के पश्चात् सामान्य रूप से ये घटित होती हैं ।

(ii) विषम उत्तर प्रतिमाएँ (Negative after Image):

ये वे प्रतिमाएँ होती हैं, जो सम उत्तर प्रतिमाओं के विपरीत प्रभाव रखती हैं, तथा पूरक रंगों में दिखाई देती हैं । जब कोई व्यक्ति किसी विशेष रंग के निशान या धब्बे पर लग भग 3० सेकेण्ड तक ध्यान देता है, और तत्पश्चात् किसी तटस्थ पृष्ठभूमि (Stable Background), सफेद या भूरी सतह पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है, तो इस प्रकार की प्रतिमाएँ निर्मित होती हैं ।

इस प्रकार की प्रतिमाओं में व्यक्ति के नीला रंग देखने पर पीला रंग एवं लाल रंग के उद्दीपक को देखने पर हरे रंग सम्बन्धी विषम उत्तर प्रतिमा उत्पन्न होती है ।

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