Read this essay in Hindi to learn about:- 1. Meaning and Definitions of Sensation 2. Nature of Sensation 3. Kinds.

Essay # 1. संवेदना का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Sensation):

वुडवर्थ के कथनानुसार, ” सामान्य तौर पर हम संवेदनाओं की बात करते हैं, तो हमारा विचार उद्दीपकों के प्रति होता है तथा सम्बन्धों के प्रति जानकारी करनी होती है, जो व्यक्ति के अनुभव में विभिन्न उत्तेजकों के रूप में संग्राहकों तक पहुँचते हैं ।”

उपर्युत्ह परिभाषा से संवेदना का अर्थ यह निकलता है, कि प्रत्येकक्षण उत्तेजक अपनी संवेदना से संग्राहको को प्रभावित करते रहते हैं । इन संग्राहकों को संवेदना ग्रहण करने के मुख्य द्वार के रूप में भी जाना जाता है ।

अखि कान नाक जीभ तथा त्वचा पर उत्तेजना अपना प्रभाव डालती है, और उत्तेजक से उत्पन्न संवेदना संग्राहकों को स्पर्श करती है, जिससे शरीर के स्नायुओं में एक स्पन्दन क्रिया प्रारम्भ हो जाती है, जिसे विद्युत रासायनिक शक्ति (Electrochemical Energy) कहा जाता है ।

इस वैद्युत क्रिया शक्ति को स्नायु प्रवाह (Nerve-Impulse) कहा गया है । यह शक्ति ज्ञानवाही स्नायु (Afferent Nerves) के द्वारा मस्तिष्क में सम्बन्धित स्थान तक संवेदना रूपी संदेश पहुँचाने की क्रिया करती है ।

अत: संवेदना मस्तिष्क की सामान्य प्रक्रिया है, जिसे प्रत्यक्षीकरण से अलग करके नहीं समझा जा सकता अर्थात् अर्थहीन संवेदना का कोई अस्तित्व नहीं होता है । इस सन्दर्भ में क्रूज लिखते हैं कि, ”उत्तेजना के प्रति जीव की प्रथम प्रतिक्रिया ही सवेदना है ।”

संवेदना को समझने के लिए कुछ परिभाषाओं की सहायता भी ली जा सकती है:

जे.एन.सिन्हा के अनुसार, ”सवेदना एक सस्कार मात्र है, जो किसी उत्तेजना के ज्ञानेन्द्रियों पर किया करने के कारण उत्पन्न होती है । अत: संवेदना ज्ञान की प्रथम सीढी है ।” संवेदना की परिभाषा को अपने शब्दों में व्यक्त करते हुए वार्ड लिखते हैं, ”शुद्ध संवेदना एक मनोवैज्ञानिक कल्पना है ।”

इसी सन्दर्भ को स्पष्ट करते हुए अपनी प्रतिक्रिया एच.जे.आइजनेक के अनुसार, ”संवेदना वह मानसिक प्रक्रम है, जो आगे विभाजन योग्य नहीं होता । यह ज्ञानेन्द्रियों को प्रभावित करने वाली उत्तेजना द्वारा उत्पादित होता है, तथा इसकी तीव्रता उत्तेजना पर निर्भर करती है, और इसके गुण ज्ञानेन्द्रिय की प्रकृति पर निर्भर करते हैं ।”

उपर्युक्त परभाषाओं एवं अर्थ की व्याख्या करने के उपरान्त हम संवेदना को ज्ञान की पहली सीढ़ी के रूप में व्यक्त कर सकते हैं, जो कि प्रत्यक्षीकरण के भीतर छिपी रहती है ।

Essay # 2. संवेदना का स्वरूप (Nature of Sensation):

मानव क्रियाओं के प्रति कुछ ज्ञानेन्द्रियाँ अपनी भूमिका निभाती हैं, अर्थात् जब हमारी ज्ञानेद्रियों के सम्पर्क में कोई वस्तु आती है, तो उसे हम देख के सूँघ के स्पर्श करके आदि क्रियाओं द्वारा अनुभव करके ही निर्णय लेते हैं, कि अमुक वस्तु क्या है?

इसी को संवेदना की प्रकृति के अन्तर्गत माना जाता है । संवेदना की प्रकृति में दो बातें समायोजित होती हैं, प्रथम वस्तु एवं दूसरी उसका ज्ञानेन्द्रियों से सम्पर्क । वस्तु का पूर्ण ज्ञान होना प्रत्यक्षीकरण प्रक्रिया के अन्तर्गत आता है । इस प्रकार प्राणी मस्तिष्क की सामान्य सरल एवं प्रथम प्रक्रिया संवेदना के अन्तर्गत होती है ।

प्राणी के व्यवहार की व्याख्या में उत्तेजकों की भूमिका प्रमुख होती है, जिससे कहीं अधिक प्राणी के अंगों पर उत्तेजना का प्रभाव होता है । प्राणी के अंगों में उत्तेजना ग्रहण करने की क्षमता एवं प्रवृत्ति होती है, जिन्हें संग्राहक (Receptors) अथवा ग्राही श्रेणियों की संज्ञा भी दी जाती है ।

ये संग्राहक प्राणी व्यवहार के बाहरी संसार की भिन्न-भिन्न वस्तुओं की उत्तेजना को ग्रहण करते हैं, जो कि उत्तेजना की अनुक्रिया के अन्तर्गत होती है । सग्राहक वातावरण सम्बन्धी ज्ञानार्जन भी कराते हैं । इसलिए इन्हें ज्ञानवाही स्नायुतन्त्र की संज्ञा भी दी गई है ।

इस प्रकार स्पष्ट है, कि संवेदना की प्रकृति अथवा स्वभाव पहले वस्तु को देखती-समझती है, तत्पश्चात् उसका प्रत्यक्षीकरण होता है । इस सन्दर्भ में संवेदना को उसके अर्थ एवं परिभाषा के आधार पर अधिक स्पष्ट किया जा सकता है ।

Essay # 3. संवेदना के प्रकार (Kinds of Sensation):

1. आन्तरिक संवेदनाएँ (Internal Sensation):

इस प्रकार की संवेदनाएँ मनुष्य की अनुभूति से सम्बन्धित होती है, इसीलिए कभी-कभी इन संवेदनाओं के स्थान का भी ज्ञान प्राप्त नहीं होता कुछ संवेदनाओं से स्थान का ज्ञान हो जाता है और कुछ संवेदनाएँ मनुष्य की भावनाओं पर निर्भर करती हैं, या भावनाओं से सम्बन्धित होने के कारण अस्पष्ट स्थान वाली होती हैं ।

शारीरिक रूप से संवेदनाएँ आन्तरिक दशाओं द्वारा उत्पन्न होती हैं; जैसे – भूख, प्यास, वेदना, चिन्ता, धड़कन आदि । इन संवेदनाओं को अन्त: आशिक संवेदना कहा जाता है । इसके लिए बाहरी उत्तेजनाओं की आवश्यकता नहीं पड़ती ।

इस प्रकार की सवेदनाओं को तीन भागों में बाँटा जा सकता है:

(i) ऐसी संवेदनाएँ जिनका स्थान अस्पष्ट होता है, जैसे – भूख प्यास बुखार आदि ।

(ii) ऐसी संवेदनाएँ जिनका स्थान स्पष्ट हो सकता है, जैसे – शरीर के किसी अंग में पीड़ा होना अथवा कोई अंग विकृत हो जाना तथा व्यक्ति को तुरन्त उसका ज्ञान हो जाना कि यह अमुक पीडा अमुक अंग में हो रही है ।

(iii) ऐसी संवेदनाएँ जो कि अनिश्चित स्थान के अन्तर्गत आती हैं; जैसे – वेदना होना, खुश होना, बेचैनी होना, ये संवेदनाएँ शरीर के किसी भी भाग के कारण हो सकती हैं ।

2. इन्द्रिय संवेदनाएँ (Organic Sensation):

इस प्रकार की संवेदनाएँ इन्द्रियजनित संवेदनाएँ कहलाती हैं । बाहरी वस्तुओं द्वारा इन्द्रियों में उत्तेजना होने पर हमारी इन्द्रियाँ कार्यशील हो जाती हैं, एवं संवेदनाएँ उत्पन्न करती हैं । मनुष्य के भीतर अनेक प्रकार की इन्द्रियाँ हैं, जिनके आधार पर ही इन्द्रिय संवेदनाओं का वर्गीकरण किया जाता है । भिन्न-भिन्न इन्द्रियों द्वारा ग्रहण की जाने वाली संवेदनाओं के आधार पर ही उनको भिन्न-भिन्न वर्गों में रखा जाता है ।

मुख्यतया पाँच प्रकार की ज्ञानेन्द्रियाँ मनुष्य के पास होती हैं, इन्हीं के आधार पर इन्द्रिय संवेदनाओं के भी पाँच विभाग कहे जाते है:

(i) दृष्टि संवेदना (Visual Sensation):

जब बाह्य वस्तु दृष्टि या अखि में उत्तेजना उत्पन्न करती है, तो उसके परिणामस्वरूप आँख द्वारा जो प्रतिक्रिया की जाती है, उसे दृष्टि संवेदना कहते हैं । इस संवेदना के लिये आँख का स्वस्थ होना अनिवार्य है ।

(ii) ध्वनि संवेदना (Auditory Sensation):

ध्वनि के कान में उत्तेजना उत्पन्न करने के परिणामस्वरूप कान की प्रतिक्रिया ध्वनि संवेदना कहलाती है । यह संवेदना ध्वनि तरंगों के माध्यम से कान तक पहुँचती है ।

(iii) घ्राण संवेदना (Olfactory Sensation):

किसी गन्ध द्वारा नाक में उत्तेजना उत्पन्न करने के परिणामस्वरूप होने वाली संवेदना घ्राण संवेदना कहलाती है । कोई भी गन्ध (सुगन्ध अथवा दुर्गन्ध) नाक द्वारा ही ग्रहण की जाती है, इसलिये घ्राण संवेदना का निश्चित स्थान नाक ही है ।

(iv) स्वाद संवेदना (Taste Sensation):

भिन्न भिन्न वस्तुओं के स्वाद जिह्‌वा से सम्पर्क करते हैं, तो जिह्‌वा में उत्तेजना उत्पन्न होती है । उस उत्तेजना की जिह्‌वा द्वारा प्रतिक्रिया स्वाद संवेदना कहलाती है । इस संवेदना के लिये जिहूवा इन्द्रिय ही निश्चित स्थान है ।

(v) स्पर्श संवेदना (Touch Sensation):

इस संवेदना का निश्चित स्थान त्वचा है, वस्तु के त्वचा के सम्पर्क में आने पर उसमें संवेदना उत्पन्न होती है, जिसे स्पर्श संवेदना कहते हैं ।

3. गति संवेदनाएँ (Motion Sensation):

मनोवैज्ञानिकों द्वारा इन्द्रिय संवेदनाओं के अन्तर्गत पाँच संवेदनाओं का उल्लेख किया गया है, तथापि मनोवैज्ञानिक छठी ज्ञानेन्द्री का उल्लेख करना उचित समझते हैं, जो कि गति सम्बन्धी शक्ति से सम्बन्धित है अर्थात् गति की शक्ति से होने वाली संवेदना गति संवेदना कहलाती है ।

इस प्रकार गति संवेदना का अनुभव शरीर के जोड़ों, कंडराओं (Tendons) तथा माँसपेशियों में होता है । इन संवेदनाओं का अर्थ स्पष्ट करते हुए एच.एल.मन ने लिखा है, कि ”गति संवेदनायें माँसपेशियों, अस्थियों तथा जोड़ों के ग्राहकों की क्रियाशीलता से उत्पन्न होती हैं ।”

अत: गति संवेदनाएँ शरीर की विभिन्न माँसपेशियों तथा स्नायु तन्तुओं द्वारा अनुभव की जाती हैं ।

इन संवेदनाओं को भी तीन भागो में विभक्त किया जाता है:

(i) प्रतिरुद्ध गति संवेदना (Impeded Movement Sensation):

शरीर की माँसपेशियों पर दबाव पड़ने पर जो संवेदना होती है, उसे प्रतिरुद्ध गति संवेदना कहा जाता है । उदाहरणार्थ अधिक बोझ उठाने पर या कोई दबाव पड़ने पर जो संवेदना होती है, वह प्रतिरुद्ध गति संवेदना होती है ।

(ii) स्थिति सम्बन्धी गति संवेदनाएँ (Position Related Movement Sensation):

शरीर के किसी भी अंग को बहुत समय तक एक ही स्थिति में रखने से यह संवेदना होती है । जैसे बहुत देर तक पैर जोड़कर बैठने से पैरों में जकडन की संवेदना होती है । इसी प्रकार एक करवट सो जाने से गर्दन की माँसपेशियों में संवेदना की अनुभूति होती है ।

इस प्रकार की संवेदना का कारण माँसपेशियों में एक प्रकार की गति है, उस गति से उत्तेजना उत्पन्न होने पर संवेदना होती है । इस संवेदना को स्थिति संवेदना (Sensation of Position) भी कहा जाता है ।

(iii) स्वच्छन्द गति संवेदना (Free Movement Sensation):

शारीरिक अंगों को स्वच्छन्द रूप से इधर-उधर घुमाने पर माँसपेशियों द्वारा होने वाली संवेदना स्वछन्द गति संवेदना कहलाती है, जैसे- व्यायाम करते समय एवं खेल-कूद के समय ।

गति संवेदनाएँ दैनिक जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं । हम जो गति भार दिशा आदि का ज्ञान प्राप्त करते हैं, इनका आधार गति संवेदनाएँ ही हैं । वुडवर्थ ने गति संवेदनाओं के महत्व को स्पष्ट करते हुए कहा है, ”गति संवेदना प्रतिक्षेप या ऐच्छिक गति की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण है । इसके अभाव में जब तुम कोई गति आरम्भ करना चाहोगे तो तुम्हें अपने अंगों की स्थिति का बहुत कम ज्ञान होगा तथा जब गति हो रही होगी तो तुम्हें इसका कुछ पता नहीं होगा कि वह कहाँ तक बढ़ चुकी है, और तुम्हें यह भी पता नहीं रहेगा कि उसे कब बन्द कर दिया गया?”

उपर्युक्त व्याख्या में आपने विभिन्न प्रकार की संवेदनाओं की संक्षिप्त जानकारी प्राप्त की । मनुष्य के जीवन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण संवेदनाएँ इन्द्रियजनित होती हैं, जिनके कारण ही मानव उचित अनुचित सुन्दर असुन्दर व अन्य प्रकार के व्यवहारों को समझ पाता है ।

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