Read this article in Hindi to learn about the two main types of sensation in a human body.
Type # 1. त्वचीय अथवा त्वक् संवेदना (Tactual or Cutaneous Sensation):
मनोवैज्ञानिकों ने अध्ययनों के आधार पर विभिन्न उत्तेजनाओं के प्रति त्वचा में भिन्न-भिन्न प्रकार की संवेदनाओं की व्याख्या की है । इन वैज्ञानिकों ने त्वचीय बिन्दुओं का पता लगाकर जाना कि विभिन्न प्रकार के संवेदना बिन्दुओं का त्वचा के ऊपर समान वितरण नहीं होता है ।
उदाहरण के लिए, त्वचा पर जलन की संवेदना धीरे-धीरे तीव्रता से निम्न तीव्रता की ओर जाती है । अत: त्वचीय उत्तेजना के बिन्दु प्राय: भिन्नता वाले होते हैं ।
त्वचा के किसी भी भाग पर होने वाली सवेदनाओं को त्वचीय संवेदना के अन्तर्गत चार भागों में बाँटा गया है:
(i) शीत (Cold),
(ii) पीड़ा (Pain),
(iii) उष्ण (Warm),
(iv) दबाव (Pressure) |
मानव इसके अतिरिक्त अनेक प्रकार की त्वचीय संवेदनाओं का अनुमान करता है; जैसे-खुजली, सूजन, गीलापन, नमीपन, चिकनापन, खरखरापन आदि संवेदनाएँ चार संवेदना के अन्तर्गत रखी जाती हैं । इसी प्रकार त्वक् संवेदना जिसका माध्यम त्वचा (Skin) है ।
इसको तीन प्रमुख भागों में विभाजित किया गया है:
(i) ताप संवेदना (Thermal Sensation),
(ii) पीड़ा संवेदना (Cold Sensation),
(iii) स्पर्श संवेदना (Touch Sensation) |
उपर्युक्त संवेदनाओं की व्याख्या सीमेंस्थीसिस के रूप में भी की गई है, जिसको शारीरिक अनुभूति (Body Feeling) के द्वारा भी जाना जाता है ।
इन तीनों सवेदनाओं की व्याख्या निम्नांकित रूप में की जा सकती है:
(1) ताप संवेदना (Temperature Sensation):
मनोवैज्ञानिकों ने ताप संवेदना के सम्बन्ध में अपने विचारों को प्रस्तुत करते हुए माना है, कि ताप संवेदना के अन्तर्गत शीत एवं उष्ण संवेदना भिन्न-भिन्न न होकर एक ही तरह के संग्राहकों से सम्बद्ध होती है तथापि दोनों प्रकार की संवेदनाओं को अलग-अलग मानना उचित होगा क्योकि दोनों के बिन्दुओं का ज्ञान भिन्न-भिन्न अवस्था के द्वारा ही सम्भव हो सकता है ।
(i) शीत संवेदना (Cold Sensation):
स्पर्श एवं पीड़ा बिन्दुओं की तरह त्वचा पर अनेक शीत बिन्दु पाये जाते हैं । शीत बिन्दुओं का पता लगाने के लिए आवश्यक है, कि इस बात को ध्यान में रखा जाये कि धातु की नोंक का तापमान शरीर के तापमान से सदैव भिन्न हो । प्रयोगों के आधार पर इस तथ्य की पुष्टि की गई है, कि त्वचा पर शीत बिन्दु सभी स्थानों पर समान संख्या में नहीं होते ।
(ii) उष्ण संवेदना (Hot Sensation):
शीत बिन्दुओं की भांति ही उष्ण बिन्दुओं का भी पता लगाया जाता है । इसका पता लगाने के लिए गरम धातु का प्रयोग किया जाता है । इस संवेदना को शान्त करने के लिए इस बात का ध्यान रखा जाता है, कि धातु की नोंक का तापमान शरीर के तापमान से अधिक होना चाहिए ।
इस प्रकार के शोध में धातु की नोंक का तापमान जैसे-जैसे बढ़ाया जाता है, उष्ण बिन्दुओं की संख्या भी बढ़ती जाती है । तुलनात्मक दृष्टि से शीत-बिन्दुओं की अपेक्षा उष्ण बिन्दुओं की संख्या कम पायी जाती है ।
(iii) त्वचा तापमान (Skin Temperature):
शरीर के विभिन्न भागों पर शरीर का तापमान भी भिन्न होता है । स्वस्थ अवस्था में 37०C (98.6० F) तापमान होता है । शरीर के जिन भागों पर कपडे होते हैं वहाँ 35०c तथा खुले भागों का तापमान 33०C होता है ।
अत: यह भी स्पष्ट है, कि त्वचा का तापमान सदैव एक जैसा नहीं रहता त्वचा के तापमान में परिवर्तन हृदय की गति रक्त नलिकाओं के फैलने तथा सिकुड़ने के आधार पर होते रहते हैं । प्रतिक्षेप क्रियाएँ भी त्वचाओं की रक्त नलिकाओं के आकार परिवर्तन पर अपना प्रभाव डालती हैं ।
ताप संवेदना एवं ताप समायोजन (Thermal Sensation & Thermal Adjustment):
जब शरीर में शीत एवं उष्ण उत्तेजक किसी त्वचा के क्षेत्र में कोई संवेदना नहीं करते हैं, तब शरीर का तापमान शून्य होता है । ताप समायोजन के प्रभाव में ठण्डे पानी में हाथ डालने पर शीतल का अनुभव होता है, किन्तु हाथ पानी में कुछ समय तक पड़े रहने पर ताप की अनुभूति कम हो जाती है ।
अर्थात् स्पष्ट है, कि किसी भी उत्तेजक की निरन्तर उपस्थिति का अभिप्राय संवेदना की अनुभूति में कमी लाने से होता है । इसे ही ताप संवेदना एवं ताप समायोजन कहा जाता है ।
(2) पीड़ा संवेदना एवं पीड़ा समायोजन (Pain Sensation & Pain Adjustment):
पीड़ा संवेदना कई कारणों से होती है, अर्थात् इसके कई उद्दीपक होते हैं, जैसे – रासायनिक, यांत्रिक, तापीय एवं वैद्युतकीय प्रमुख रूप से सम्मिलित हैं । यांत्रिक उत्तेजना प्रारम्भ में स्पर्श संवेदना उत्पन्न करती है और त्वचा पर दबाव बढ़ने के साथ-साथ पीड़ा का अनुभव भी तीव्र होता जाता है ।
वैद्युतकीय अवस्था में त्वचा के विद्युत प्रवाह की उच्च शक्ति को उत्पन्न करके पीड़ा का अनुभव किया जाता है । वैज्ञानिकों के मतानुसार दबाव एवं पीड़ा के बिन्दुओं पर अधिक दबाव बढ़ने से संवेदना का अनुभव होता है ।
यह विदित हो कि पीड़ा का समायोजन त्वचा पर हो जाता है अर्थात् पीड़ा की संवेदना अनुभूति धीरे-धीरे कम होती जाती है अर्थात् त्वचा के उद्दीपक के निरन्तर बने रहने पर पीड़ा का समायोजन हो जाता है ।
यदि शरीर के किसी भाग पर सुई या पिन को चुभा दिया जाये तो शुरू में पीडा तीव्र होती है, तत्पश्चात् उस पीडा का समायोजन हो जाता है । इस समायोजन के पश्चात् ही पीड़ा संवेदना स्पर्श संवेदना में परिवर्तित हो जाती है ।
(3) स्पर्श या दबाव संवेदना (Touch or Pressure Sensation):
मानव त्वचा पर होने वाली उत्तेजना से स्पर्श की अनुभूति का कारण अनेक प्रकार के कोशाणु की उपलब्धि होती है । सबसे अधिक स्पर्श सग्राहक उँगलियों के अग्रिम भाग तथा जीभ पर पाये जाते हैं, जबकि पीठ एवं एड़ी पर स्पर्श संग्राहकों की अनुभूति सबसे कम होती है ।
त्वचा की संरचना में तीन प्रकार की पर्ते होती है:
(i) बाह्य त्वचा
(ii) आन्तरिक त्वचा (Corium) एवं
(iii) उपत्वचा (Sub-Cutaneous Tissue) |
त्वचा की सबसे बाहरी परत शरीर पर आवरण का कार्य करती है । स्नायु एवं रक्तवाहिनियों की अनुपस्थिति में इस बाहरी परत की रचना को निर्जीव कोशों (Dead Cells) में निर्मित बताया गया है ।
त्वचा की दूसरी परत से स्नायुतन्तु पसीने की नलिकाएँ तथा बालों की थैलियाँ (Hair Follicles) पायी जाती हैं, जिन्हें आन्तरिक त्वचा के रूप में जाना जाता है । त्वचा की तीसरी परत चर्बी से बनी होती है । इस प्रकार त्वचा की विभिन्न पर्तों में विभिन्न संग्राहकों की उपस्थिति रहती है ।
स्पर्श बिन्दु एवं समायोजन:
त्वचा में बालों वाले स्थान पर स्पर्श बिन्दु अधिक तथा बालरहित भाग पर स्पर्श बिन्दु कम होते हैं । इस प्रकार स्वर्श बिन्दु जहाँ अधिक होते हैं, वहाँ संवेदना अधिक होती है तथा जहाँ स्पर्श बिन्दु कम होते हैं वहाँ संवेदना भी कम होती है ।
स्पर्श संवेदना से स्पर्श समायोजन का भी घनिष्ठ सम्बन्ध है । उदाहरण के लिए जिन वस्तुओं का स्पर्श त्वचा पर निरन्तर बना रहता है, उन पर कुछ समय के पश्चात् स्पर्श का अहसास होना शून्य हो जाता है, क्योंकि उत्तेजक की तीव्रता में धीरे-धीरे कमी आ जाती है ।
Type # 2. रासायनिक संवेदनाएँ (Chemical Sensation):
सवेदना किसी उत्तेजना के प्रति जीव की प्रथम अनुक्रिया है । वास्तव में यह प्रत्यक्ष की दिशा में एक कदम के रूप में कार्य करती है । यदि ये सवेदनाएँ क्रियाशील न हों तो मानव इनके बिना जीवन की कल्पना नही कर सकता । इसी प्रकार रासायनिक संवेदनाएँ भी मानव जीवन का एक अटूट हिस्सा हैं । इन संवेदनाओं के अन्तर्गत घ्राण संवेदना (Olfactory Sensation) एवं स्वाद संवेदना (Taste Sensation) को स्थान दिया है ।
(i) घ्राणेन्द्रियाँ (Sense of Smell):
मनुष्य में किसी वस्तु की गन्ध के ज्ञान के लिए नाक होती है । नाक में उपास्थि की बनी एक महीन एवं खड़ी नासापट्टी होती है, जो नासागुहा को दाँयी तथा बाँयी दो भागों में अलग करती है । प्रत्येक नासागुहा नाक के छोर पर स्थित बाह्य नासाद्वार से प्रारम्भ होकर अन्दर ग्रसनी तक खुलती है ।
नासागुहा की छत की दीवारों पर एक श्लेष्मिक झिल्ली चढ़ी रहती है । इस झिल्ली से श्लेष्मा निकलता रहता है, तो श्वास द्वारा ली गयी वायु को नम एवं गर्म बनाता है, साथ ही इनकी दीवारों पर संवेदी कोशिकाएँ होती हैं, जो गन्ध को ग्रहण करती हैं ।
जुकाम होने की स्थिति में श्लेष्मा की मात्रा बढ़ जाती है, तथा नाक का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है । इसी कारण हमें किसी भी प्रकार की गन्ध ज्ञान नहीं हो पाता है । यदि हम किसी गन्ध को लगातार एक लम्बे समय तक सूँघते रहें तो उस गन्ध की पहचान करना धीरे-धीरे कमजोर होता जाता है और एक समय हमारी नाक उस गन्ध को बिल्कुल ही नहीं पहचान पाती है ।
नाक के माध्यम से जीव को गरा की संवेदना होती है । नाक के आन्तरिक भाग के सबसे ऊपर एक छोटा-सा स्थान होता है, उसे आलफैक्ट्री एपिथीलियम (Olfactory Epithelium) कहते हैं । इसमें ग्रन्थ संग्राहक होते हैं । मस्तिष्क के गन्ध केन्द्र में स्थित आलफैक्ट्री बल्व का सम्बन्ध इन्हीं रेशे रूपी ग्रड़ा संग्राहकों से होता है ।
छाए संवेदना मापन की मुख्यत: निम्नलिखित विधियाँ प्रचलित है:
(1) आलफैक्टोरियम:
इस विधि का उपयोग डलेनबैक द्वारा किया गया । इस विधि में दो कमरों का प्रयोग किया जाता है । एक कमरा दूसरे कमरे के अन्दर होता है, जो कि एक्मेरीमेन्टर कमरा होता है, जिससे विभिन्न विधियों द्वारा छाए उद्दीपक को नियन्त्रण में रखा जाता है ।
(2) कैमरा इन्डोसटा:
इस विधि का उपयोग डलेनबैक विधि की संशोधित विधि के रूप में किया गया है । इसमें एक सन्दूक का प्रयोग किया जाता है, जिसमें प्रयोज्य अपना सिर डालता है । उसके बाद वह घ्राण उद्दीपक को ग्रहण करता है । इसमें मरकरी (Mercury) बेपर्स के द्वारा कैमरे को गन्ध रहित किया जा सकता है ।
(3) आल्फैक्टोमीटर:
इस यन्त्र का सबसे पहले प्रयोग जवार्डमेकर ने किया । इसमें दो .०8 सेमी की काँच की नलिकाएँ होती हैं जो एक मोटी नली के अन्दर लगी होती हैं ताकि इन दोनों पतली नलियों को सरकाया जा सके ।
पतली दोनों नलियों को प्रयोज्य की नाक के पास ले जाकर दोनों छिद्रों से सम्बन्धित कर दिया जाता है और दोनों नलियों को मोटी नली से थोड़ा बाहर खींच लिया जाता है । मोटी नली से गन्ध उद्दीपक की थोडी-सी हवा प्रयोज्य की नाक में चली जाती है । इसके द्वारा गन्ध उद्दीपक का प्रारम्भिक सीमान्त ज्ञात किया जाता है ।
(4) स्थिर गति विधि:
सन् 1945 में इस विधि को ली मैग्नैन द्वारा प्रतिपादित किया गया । ली मैग्नेन द्वारा एक यन्त्र बनाया गया जिसमें एक सीटी का प्रयोग किया गया ।
इस सीटी को यन्त्र के अग्रिम भाग पर लगाकर प्रयोज्य से ग्रन्थ उद्दीपक को साँस खींचकर ग्रहण करने के लिए कहा जाता है, तो सीटी बजनी शुरू हो जाती है । इस विधि में सीटी की स्थिर गति प्रयोज्य द्वारा गन्ध उद्दीपक को स्थिर गति से ग्रहण करने पर निर्भर करती है ।
(5) ब्लास्ट इंजेफ्यान:
लास्ट इंजेक्टान नामक यन्त्र को सन् 1935 में प्रतिपादित किया गया । इस यन्त्र के जनक एल्सबर्ग तथा लीवे थे । इस एक यन्त्र में एयरटाइट कार्क द्वारा हवा नली को कस दिया जाता है, जिसके एक भाग पर इंजेकशन लगा रहता है ।
एक शीशी में दो नलियाँ फिट होती हैं । इनमें से एक हवा नली कहलाती है । इस नली से हवा भरी जाती है । दूसरी नली के बीच में पिच कार्क लगी रहती है । दोनों नली प्रयोज्य की नाक के दोनों छिद्रों से सम्बन्धित कर दी जाती हैं । प्रयोज्य गन्ध उद्दीपक को ग्रहण करता है, जिससे ग्रन्ध के प्रारम्भिक सीमान्त (Primary Threshold) का निर्धारण हो जाता है ।
गन्ध सीमान्त (Smell Thresholds) गड़ा सीमान्तों का अध्ययन अनेक मनोवैज्ञानिकों द्वारा किया गया है । कुछ ग्रड़ा उद्दीपकों के सीमान्तों को अग्रांकित तालिका द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है ।
उपर्युक्त तालिका में दिये गये गन्ध सीमान्त में परिवर्तन होते रहते हैं । गरा उद्दीपकों के सम्बन्ध में अनुकूलन की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है । विभिन्न रासायनिक प्रयोगशालाओं चिकित्सालयों आदि में वहाँ के कर्मचारियों को इन गना उद्दीपकों की प्रतिक्रियाओं से कोई संवेदना नहीं होती क्योंकि उनको अनुभूति होनी धीरे-धीरे कम हो जाती है ।
इसी प्रकार कम तीव्रता वाले गन्ध उद्दीपकों का अनुकूलन देर से होता है । अत: स्पष्ट है, कि गन्ध उद्दीपकों की अनुकूलन की तीव्रता तथा उनसे निकलने वाली वाष्प से प्रभावित रहती है ।
(ii) स्वादेन्द्रियाँ (The Sense of Taste):
स्वाद का प्रमुख अंग जिह्वा (जीभ) है, क्योंकि स्वाद के संग्राहक इसी में रहते हैं । यह स्वादेन्द्रिय होने के साथ-साथ पिसे हुए भोजन में अच्छी तरह लार को मिलाने में मदद करती है तथा दाँतों की अपने स्तर तक सफाई भी करती है ।
जीभ एक अत्यधिक गतिशील अंग है, जो स्वाद बोध के अतिरिक्त चबाने (Mastication), निगलने (Swallowing) तथा बोलने (Speech) जैसे महत्वपूर्ण कार्यो को भी करती है । जीभ वास्तव में केवल माँसपेशियों से बना हुआ अंग है । जीभ के मुख्यत: चार प्रकार के छोटे-छोटे अंकुर उभरे रहते हैं । इन्हीं अंकुरों में अनेक छोटी-छोटी स्वाद कलिकाएँ (Taste Buds) होती हैं । यह स्वाद संवेदना को ग्रहण करने का कार्य करती हैं ।
प्रत्येक स्वाद कलिका के स्वतन्त्र सिरे पर एक संवेदी रोम होता है तथा निचले सिरों पर सवेदी तन्तुओं की महीन शाखाएँ पाई जाती हैं । प्रत्येक स्वाद कलिका एक सूक्ष्म स्वाद छिद्र द्वारा जीभ की सतह पर खुलती है । ये ही भोज्य पदार्थों की स्वाद संवेदनाओं को मस्तिष्क तक भेजती है ।
मनुष्य में चार विभिन्न स्वादों को जीभ के विभिन्न भागों द्वारा अनुभव किया जाता है, जिसमें सर्वथा जीभ का अगला भाग अर्थात् स्वतन्त्र भाग मीठे तथा नमकीन स्वाद के लिये होता है । जीभ के दोनों ओर अलग-बगल खट्टे स्वाद की कलिकाएँ होती हैं ।
इसलिए प्राय: कोई खट्टी चीज खाते समय हम अपनी जीभ को गोलकर एक चुटकी-सी बजाते हैं, तथा कड़वे स्वाद की कलिकाएँ जीभ के पिछले भाग पर होती हैं । इसी कारण प्राय: कड़वी दवाई को खाने के लिए उसे जीभ के अगले भाग पर रखना चाहिए न कि मुँह में ।
कड़वी दवाई बिल्कुल अन्दर की ओर को करके रखना चाहिए । हमारी जीभ की कुछ विशेषताएँ भी हैं, जिनमें प्रमुख हैं- हमारी जीभ ठण्डे भोज्य पदार्थों की अपेक्षा गर्म पदार्थो के स्वाद को जल्दी तथा अच्छी तरह पहचान सकती है । इसलिये हमें गर्म खाना एवं गर्म सूप अधिक अच्छा लगता है, न कि ठण्डा खाना तथा सूप ।
किसी एक स्वाद की वस्तु का एक साथ अधिक सेवन करने के तुरन्त बाद किसी अन्य स्वाद की वस्तु का सेवन करने पर उसका स्वाद सर्वथा विपरीत जान पड़ता है; जैसे – अधिक मात्रा में चीनी खाने के बाद तुरन्त पानी पीने पर कड़वा-सा प्रतीत होता है ।
उपर्युक्त विषय-वस्तु से सम्बन्धित विभिन्न प्रकार की संवैधानिक प्रक्रियाओं को आपने समझा और जाना कि मनुष्य अपने दैनिक जीवन में विभिन्न प्रकार की संवेदनाओं की अभिव्यक्ति करता है, जो न केवल व्यवहारगत उत्पन्न होती हैं, वरन् उनमें आन्तरिक एवं बाहरी वातावरण भी सम्मिलित रहता है ।