Here is an essay on ‘Endocrine Glands’ for class 9, 10, 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Endocrine Glands’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay # 1. अन्तःस्त्रावी ग्रन्थियाँ (Endocrine Glands):
हमारे शरीर में विभिन्न क्रियाएँ हर समय होती रहती हैं, जिनमें दोनों प्रकार की क्रियाएँ होती हैं- ऐच्छिक क्रियाएँ व अनैच्छिक क्रियाएँ शरीर की ऐच्छिक क्रियाओं पर तन्त्रिका तन्त्र का नियन्त्रण होता है ।
ये क्रियाएँ बहुत तीव्र गति से होती हैं । इसके अतिरिक्त अनैच्छिक क्रियाओं पर नियन्त्रण विशेष रासायनिक पदार्थों द्वारा होता है, जिसे हॉर्मोन्स (Hormones) कहते हैं । ये मन्द गति से होने वाली क्रियाएँ हैं । इनमें कुछ रासायनिक पदार्थ रक्त में होकर वृद्धि जनन उत्सर्जन पाचन आदि क्रियाओं पर नियन्त्रण करते हैं ।
शरीर के भीतर कुछ ग्रथियों ऐसी हैं, जिनका रस नलिका द्वारा उनसे निकलकर रक्त में मिल जाता है, या किसी अंग में पहुँचकर अपना कार्य करता है । स्वेद ग्रन्थियाँ, लार ग्रन्थियाँ, आमाशय अस्थियों, अग्न्याशय ग्रन्थियाँ और यकृत आदि ऐसी ग्रन्थियाँ हैं, जिनका स्राव या तो सीधे अंग के भीतर ही निकलता है ।
जैसे-मुँह में लार, आमाशय में जठर रस या इनका स्राव किसी विशेष नलिका या प्रणाली द्वारा किसी विशेष अंग में पहुँचता है । जैसे- पित्त तथा अग्न्याशायिक रस विशेष नलिकाओं द्वारा पक्वाशय में पहुँचता है । अत: स्राव का कार्य केवल उत्तेजना प्रदान करना ही नहीं है, बल्कि वे शरीर की क्रियाओं को नियन्त्रित भी करते हैं ।
शरीर में रका एक महान संयोजक होता है । इसी के माध्यम से शरीर के विभिन्न अंगों से सन्देश का आदान प्रदान होता है । रक्त में एक प्रकार का रासायनिक पदार्थ होता है, जो संदेशों का आदान-प्रदान करता है । इस स्राव को हॉर्मोन कहते हैं । यह रासायनिक पदार्थ अन्त: स्राव (Endocrine) होता है ।
इन ग्रथियों का प्राय: सम्बन्धित अंगों से सम्पर्क कटा होता है, इसलिए इन्हे नलिका वाहिनी (Ductless) ग्रथियों कहते हैं । अत: इनके द्वारा स्रावित पदार्थ सीधे रक्त में युक्त होकर सारे शरीर में बहता है । इन्हीं सावी पदार्थों को हॉर्मोन्स कहते हैं । थायरॉइड, पीयूष, थाइमस, एड्रीनल आदि ग्रन्थियाँ इनके उदाहरण हैं ।
मानव शरीर में पायी जाने वाली अन्त स्त्रावी ग्रन्थियाँ:
मानव शरीर में निम्नलिखित अन्त सावी ग्रन्धियाँ (Endocrine Glands) पायी जाती हैं:
(1) थाइरॉइड ग्रन्थियाँ (Thyroid Glands),
(2) पैराथाइरॉइड ग्रन्थियाँ (Parathyroid Glands),
(3) अधिवृक्क या एड्रीनल ग्रन्थियाँ (Adrenal Glands),
(4) अग्न्याशय ग्रन्थि (Pancreas),
(5) पीयूष ग्रन्थि (Pituitary Gland),
(6) थाइमस ग्रन्थि (Thymus Gland),
(7) पीनियल बॉडी (Pineal Body),
(8) अन्य संरचनाएँ (Other Structures) ।
उपर्यक्त इन सभी ग्रथियों से भिन्न-भिन्न प्रकार के हॉर्मोन्स निकलते हैं, जो शरीर के भागों पर भिन्न-भिन्न रूपों से प्रभाव डालते हैं । इनका जीवन से सीधा सम्बन्ध होता है ।
हॉर्मोन्स ऐसे रासायनिक संदेशवाहक होते हैं, जो शरीर के एक भाग से सीधे रक्त में स्रावित होते हैं, तथा सारे शरीर में वितरित कर दिये जाते हैं । इनकी सूक्ष्म मात्रा ही विशेष अंगों की कार्यिकी को वातावरणीय दशाओं की आवश्यकतानुसार प्रभावित करती है ।
हॉर्मोन्स प्राय: भोजन में नहीं होते हैं । ये शरीर में ही अन्त: स्रावी ग्रथियों द्वारा बनते हैं, रासायनिक स्तर पर ये प्राय: प्रोटीन से बनते हैं । प्राय: ये जल में घुलनशील होते हैं । इनका स्राव बहुत ही सूक्ष्म मात्रा में होता है, क्योंकि ये बहुत ही सक्रिय पदार्थ होते हैं ।
इनका शरीर में संचय नहीं होता है, ये यकृत तथा वृक्क द्वारा रका से जल्दी जल्दी हटाकर बाहर कर दिये जाते हैं । प्राय: मूत्र के साथ इनका उत्सर्जन होता रहता है । कुछ हॉर्मोन्स का शरीर की सारी कोशिकाओं पर लेकिन अधिकांश का शरीर की कुछ निश्चित कोशिकाओं पर ही सुनिश्चित प्रभाव होता है ।
इनके कार्य निम्नलिखित हैं:
1. शरीर के उपापचय पर नियन्त्रण किया जाता है ।
2. अग्न्याशय के पाचक रसों का पाचन में पूर्ण नियन्त्रण इन्हीं के द्वारा होता है ।
3. हृदय स्पन्दन दर, श्वांस दर आदि पर नियन्त्रण करता है ।
4. शरीर के कुछ अंगों को सक्रिय करता है, तथा कुछ वर्गो को निष्किय करता है ।
5. प्रजनन से सम्बन्धित अंगों का विकास तथा उनकी सम्पूर्ण क्रियाविधि पर नियन्त्रण का कार्य किया जाता है ।
6. शरीर की समुचित वृद्धि तथा बाह्य वातावरण बनाया जाता है ।
Essay # 2. पीयूष ग्रन्थि (Pituitary Gland):
स्थिति – यह मस्तिष्क के नीचे भाग में लटकी हुई होती है ।
रचना – यह सबसे छोटी अस्थि है, तथा यह लाल व भूरे रग की होती है । इसका व्यास 12 mm होता है ।
कार्य – यह शारीरिक विकास के लिए बहुत महत्वपूर्ण माना गया है ।
यह दो भागों में बँट जाती है:
a. आगे का भाग,
b. पीछे का भाग।
(a) आगे का भाग:
यह छेद प्रभावी स्राव छोड़ता है, जो शारीरिक मानसिक तथा यौनिक वृद्धि और विकास पर नियन्त्रण रखता है । इसका अधिक स्राव होने से अंगों की अनुचित रूप में वृद्धि होती है । पैरों का लम्बा होना सिर बढ्कर बेडौल लगना तथा शीघ्र प्रौढ़ अवस्था ग्रहण करना । इसकी कमी से विकास धीमा हो जाता है तथा बच्चे ठिगने रह जाते हैं । दूध इसका स्राव होने में सहायता देता है ।
(b) पीछे का भाग:
इसके स्राव को पिट्यूटशिन कहते हैं । इसमें चार प्रकार के हॉर्मोन्स होते हैं, जिनमें से पिर्डसीन तथा पिटोसिन मुख्य हैं ।
(i) पिटोसीन द्वारा:
शक्कर तथा रक्तचाप पर नियन्त्रण रखा जाता है । इसकी कमी से व्यक्ति मोटा व आलसी बन जाता है ।
(ii) पिटोसिन के कार्य:
गर्भाशय मूत्राशय आँत तथा पित्ताशय पेशियों को सिकोड़ता है । प्रभाव के बाद रक्तस्राव को कम करने में सहायता देता है । इसके अधिक स्राव से शरीर की वृद्धि तथा यौन विकास शीघ्र हो जाता है । इसकी कमी से प्रजनन शक्ति ठीक प्रकार से विकसित नहीं हो पाती है ।
Essay # 3. थायरॉइड ग्रन्थि (Thyroid Gland):
स्थिति:
यह अस्थि कंटक के पीछे स्वर यन्त्र के नीचे ड्रेकिया के सामने लैटिकान के ठीक नीचे स्थित होती है ।
रचना:
यह अस्थि आकार में उल्टे कीप के समान होती है । थायरॉइड ऊतक की पट्टी के यह आगे व पीछे की तरफ जुड़ी हुई होती है ।
कार्य (Function):
इसमें से थाइरॉक्सिन नामक हॉर्मोन्स निकलता है । इसमें आयोडीन की मात्रा काफी होती है । यह कोशिका की वृद्धि पर नियन्त्रण रखता है । इसकी कमी से शरीर की वृद्धि रुक जाती है । जीव नाटे रह जाते हैं, तथा भार बढ़ जाता है, सिर में दर्द, पेशियों का कमजोर हो जाना, सुस्ती आना, चिड़चिड़ापन आ जाता है, बाल झड़ने लगते हैं ।
कभी-कभी यह ग्रन्थि स्वयं फूलकर घेंघा नामक रोग हो जाता है, तथा थाइरोंक्सिन हॉर्मोन्स की अधिकता से इसका रंग लाल हो जाता है । पसीना अधिक आता है, शरीर गर्म रहता है, भार घटता है, नेत्र बड़े होकर बाहर को निकल आते हैं, हृदय की गति बढ़ जाती है ।
इस अस्थि के निम्न कार्य हैं:
(1) शरीर के तापमान में मेटाबोलिज्म दर को नियन्त्रित करती है ।
(2) यह अस्थि शरीर के तापमान को भी बनाये रखने में सहायक है ।
(3) आँतों की ग्लूकोज रक्त तथा उत्पादन को नियन्त्रण में रखती है ।
(4) थाइरॉक्सिन स्राव को नियन्त्रण में रखती है, यदि थाइरॉक्सिन में ज्यादा स्राव होता है, तो उसे घेंघा हो जाता है ।
Essay # 4. अधिवृक्क ग्रन्थियाँ (Adrenal Glands):
स्थिति:
यह प्रत्येक गुर्दे के ऊपरी भाग में स्थित होती हैं । इनकी संख्या दो होती है ।
रचना:
यह दो तिकोने आकार की छोटी ग्रल्थयाँ होती हैं । प्रत्येक ग्रन्थि का बाहरी भाग कार्टेक्स व आन्तरिक भाग भेदना कहलाता है ।
कार्य:
प्रत्येक अस्थि के दो भाग होते हैं:
(a) कार्टेक्स,
(b) मेड्यूला ।
(a) कार्टेक्स:
यह ग्रन्थि का बाहरी भाग होता है । इस ग्रन्थि से काटिन स्राव निकलता है, जो पुरुषों व स्त्रियों की यौन इन्द्रियों पर प्रभाव डालता है । यह जल और रासायनिक लवणों के आवागमन पर भी नियन्त्रण रखता है ।
(i) तनाव में यह सहायता करता है ।
(ii) प्रोटीन और कार्बोहाइड़ेट के मेटाबोलिज्म में भी प्रभाव डालता है ।
(b) मेड्यूला:
ये ग्रन्थि का भीतरी भाग है ।
(i) यह हृदय की धड़कनों को बनाये रखती है ।
(ii) जरूरत आने पर माँसपेशीय हृदय में अधिक रक्त प्रवाहित करता है ।
(iii) डर, भय के तनाव के समय ब्लड प्रेसर का अधिक होना भी इसका कारण है ।
साधारण शब्दों में इसका स्राव ग्रन्थियों को उत्तेजना व शक्ति प्रदान करता है । उत्तेजित अस्वस्थता में त्वचा के रोंगटे खड़े हो जाते हैं, तथा वहव्यक्ति लडने या भागने के लिए तैयार रहता है । नेत्र की पुतलियाँ फैल जाती हैं । आखें बाहर की ओर आ जाती हैं । रक्त मस्तिष्क की ओर अधिक बढ़ जाता है, हृदय गति बढ़ जाती है ।
Essay # 5. अग्न्याशय (Pancreas):
अग्न्याशय ग्रन्थि मानव की उदर गुहा में स्थित होती है । यह लगभग 20 सेमी. लम्बी, हल्की गुलाबी तथा चपटी अस्थि होती है । इस ग्रन्थि में अन्तः स्रावी कोशिकाओं के छोटे-छोटे अण्डाकार से ठोस समूह होते हैं । इन्हें लैंगरहेन्स की द्वीपिकाएँ (Islets of Langerhans) कहते हैं ।
इन द्वीपिकाओं में दो प्रमुख हॉर्मोन्स का निर्माण होता है, जो क्रमश: इस्युलिन (Insulin) तथा ग्लूकेगॉन (Glycogen) होते हैं । दोनों ही हॉर्मोन्स शरीर में मुख्यत: कार्बोहाइड्रेट के पाचन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । इम्मुलिन के कम स्राव से शरीर कोशिकाएँ रक्त से ग्लूकोज की मात्रा बढ़ जाती है, तथा इसकी मात्रा अधिक बढ़ने पर ग्लूकोज मूत्र के साथ उत्सर्जित होने लगता है ।
इस प्रकार शक्कर या ग्लूकोज के मूत्र के साथ उत्सर्जित होने को ही मधुमेह (Diabetes) रोग कहते हैं । यह एक अस्थि है, जो दो प्रकार के केन्द्रों से स्राव करती है, तथा ऊतकों के द्वारा ही मुख्य कार्य करती है ।
(a) बहिःस्रावी ग्रन्थियाँ:
यह ग्रन्थियाँ पाचन नली के द्वारा आमाशय को सचालित करती हैं ।
(b) अन्त-रावी ग्रन्थियाँ:
यह ग्रथियों हॉर्मोन्स को स्रावित करती है ।
स्थिति:
ये आमाशय के पीछे पहली और इसकी (Lumbarbertebrea) के सामने स्थित हैं, और यह छोटी अति से जुड़ी हुई हैं ।
रचना:
ये बड़ी थैली के समान हैं, यह रक्त में ग्लूकोजन और इन्तुलिन का सावण करती हैं ।
कार्य:
(i) यह रक्त में ग्लूकोज का स्तर बढाती हैं, तथा लीवर को उत्तेजित करती हैं ।
(ii) इन्तुलियन ग्लूकोज लीवर में प्रोटीन एवं वसा के उत्पादन में कमी करती हैं ।
(iii) ये दोनों के समन्वय से रक्त में ग्लूकोज के स्तर को बनाये रखने में सहायता करती हैं ।
(iv) ग्लूकोज लीवर में ग्लाइकोजन में परिवर्तित करने में सहायता करती हैं ।
Essay # 6. पैराथायरॉइड ग्रन्थियाँ (Parathyroid Glands):
यह ग्रन्थि थायरॉइड ग्रन्थि की पृष्ठ सतह में धँसी दो जोड़ी या चार छोटी अण्डाकार-सी लाल रंग की ग्रथियों होती हैं । मनुष्य में इनका वजन 0.01 से 0.03 ग्राम होता है । इनके साथ-साथ कई प्रकार की कोशिकाएँ तथा रक्त पात्र भी पाये जाते हैं । यह ग्रथियों पैराथॉरमोन नामक हॉर्मोन का सावण करती हैं । यह हॉर्मोन विटामिन D के साथ मिलकर रक्त में कैल्सियम की मात्रा को बनाने का कार्य करता है ।
साथ ही यह आँत में कैल्सियम के अवशोषण को तथा वृक्कों में इसके पुनरावशोषण (Reabsorption) को बढाता है । रक्त में कैल्सियम की इस प्रकार बड़ी मात्रा का उपयोग अस्थि निर्माण तथा दन्त निर्माण में किया जाता है, तथा कैल्सियम पेशियों के सिकुडने तथा फैलने में भी सहयोग करता है ।
यदि किन्ही कारणों से पैराथॉरमोन हॉर्मोन की कमी शरीर में हो जाये तब पेशियों तथा तन्त्रिकाओं में आवश्यक उत्तेजना के कारण ऐंठन और कम्पन होने लगता है । कभी-कभी ऐच्छिक पेशियों में लम्बे समय तक सिकुड़न पैदा हो जाती है । अधिकांश रोगी कंठ की पेशियों में ऐसी सिकुड़न के कारण साँस नहीं ले पाते हैं, और मर जाते हैं । इस रोग को टिटेनी (Tetany) कहते हैं ।
कभी-कभी यह ग्रन्थि अधिक हॉर्मोन का स्राव करने लगती है । इससे हड्डियाँ गलकर कोमल तथा कमजोर हो जाती हैं । तन्त्रिका सूत्र तथा पेशियाँ कमजोर हो जाती हैं । तन्त्रिका सूत्र तथा पेशियाँ कमजोर हो जाती हैं । मूत्र की मात्रा बन्द हो जाने से प्यास बढ़ जाती है, भूख मर जाती है, सिर दर्द रहने लगता है ।
Essay # 7. थाइमस ग्रन्थियाँ (Thymus Gland):
यह अस्थि गर्दन की नीचे उरोस्थि के ठीक पीछे स्थित होती है । इसमें बाहरी संयोजी ऊतकों का खोल चढ़ा रहता है, तथा भीतर यह दो छोटे-छोटे पिण्डकों (Lobes) में बँटी रहती है । जन्म के समय यह विकसित अवस्था में होती है, फिर 8-10 वर्ष की आयु तक यह बढ़ती रहती है, किन्तु इसके बाद प्राय: धीरे-धीरे छोटी होकर वृद्धावस्था में तन्तु के रूप में ही रह जाती हैं ।
यह नवजात शिशुओं में, जीवाणुओं आदि के संक्रमण (Infection) से शरीर की सुरक्षा करती है । इसके प्रत्येक पिण्ड में ‘लिम्फोसाइट’ का निर्माण होता है । जन्म के बाद थाइमस में लिम्फोसाइड कोशिकाओं के साथ थाइमोसिन (Thymosin) हॉर्मोन स्रावित होकर इन लिग्फोसाइट को भिन्न-भिन्न प्रकार के जीवाणुओं को नष्ट करने की प्रेरणा देता है ।
Essay # 8. पीनियल काय (Pineal Body):
यह अस्थि मस्तिष्क में स्थित रहती है, तथा सफेद छोटीसी चपटी ग्रन्थि होती है । यह ग्रन्थि मिलैटोनिन हॉर्मोन (Melatonin Hormone) का सावण करती है । यह हार्मोन त्वचा के हल्के रंग के लिए उत्तरदायी है, तथा लैंगिक आचरण को प्रकाश की विभिन्नताओं के अनुसार नियन्त्रित करता है ।
कहा जाता है कि जन्म से अंधे मानव बच्चों में यौवनावस्था जल्दी आ जाती है, क्योंकि आँखों द्वारा प्रकाश प्रेरणा ग्रहण न करने पर मिलैटोनिन का उचित स्राव नहीं होने पाता है ।
Essay # 9. अन्य संरचनाएँ (Other Glands):
अन्य संरचनाओं में ऐसी ग्रथियों शामिल की गयी हैं, जो अपने स्रावित हार्मोन को जलिकाओं द्वारा सम्बन्धित अंगों में पहुँचाती हैं ।
इसमें निम्न सरचनाएँ आती हैं:
(i) त्वचा (Skin):
त्वचा में सूर्य की पराबैंगनी किरणों के प्रभाव से विटामिन ‘डी’ का निर्माण होता है, क्योंकि यह विटामिन शरीर में ही बनकर रक्त में फैल जाता है । अत: इसे हॉर्मोन भी माना जाता है । यह हॉर्मोन अस्थि निर्माण को प्रेरित करता है, तथा शरीर की उपयुक्त वृद्धि के लिए आवश्यक होता है ।
बचपन में इस हॉर्मोन की कमी के कारण हड्डियाँ पतली कमजोर तथा टेढ़ी हो जाती हैं । इसे सूखा रोग (Rickets) कहते हैं । वृद्धि काल में इसकी कमी से ओस्टियो मेलिसया (Ostea Malacia) नामक रोग हो जाता है । इसमें हड्डियाँ कमजोर तथा आसानी से टूटने वाली हो जाती हैं ।
(ii) जनन ग्रन्थियाँ (Gonad Glands):
पुरुषों तथा स्त्रियों दोनों में भिन्न-भिन्न प्रकार के हॉर्मोन जनन ग्रन्थियों में बनते हैं । इनका प्रमुख कार्य जननागों की वृद्धि एवं विकास करना, लैंगिक लक्षणों का विकास करना तथा जनन क्रियाओं को नियन्त्रित करना है । पुरुषों में तथा स्त्रियों में इनके कार्य भी भिन्न होते हैं ।
(a) नर हॉर्मोन एवं वृषण (Male Hormones and Testis):
पुरुषों में वृषण (Testis) ही जनन अस्थि का कार्य करता है । इसमें निम्नलिखित दो हॉर्मोन का स्राव होता है: प्रथम, ऐन्होजेन्स (Androgens) यह यौवनवस्था से लेकर लगभग 20 वर्ष की आयु तक स्राव होता रहता है ।
यह पुरुष लैंगिक अंगों के विकास को प्रेरित करता है, साथ ही पुरुषों में लैंगिक लक्षणों जैसे – भारी आवाज, दाढ़ी-पूंछ, अधिक मजबूत हड्डियाँ एवं पेशियाँ, स्वभाव में उत्साह, मैथुन-इच्छा आदि का भी विकास करता है ।
द्वितीय टेस्टोस्टीरोन (Testosterone):
यह गर्भकाल में 8-9 सप्ताह के ही नर भ्रमण के वृषणों से स्रावित होने लगता है, तथा शिशु के शिश्न अण्डकोष तथा अन्य जनन अंगों के निर्माण को प्रेरित करता है । जन्म के बाद से बाल्यावस्था तक निष्क्रिय अवस्था में पड़े रहते हैं । यौवनावस्था (11 से 14 वर्ष की आयु) में वृषण फिर सक्रिय हो जाते हैं, और इनमें नर हॉर्मोन तथा शुक्राणु बनने लगते हैं ।
(b) मादा हॉर्मोन एवं अण्डाशय (Female Hormones and Ovary):
मादाओं में अण्डाशय ही प्रमुख जनन ग्रन्थि है । जहाँ से मादा हॉर्मोन का स्राव किया जाता है ।
मादाओं में मुख्यत: निम्न तीन हॉर्मोन्स का स्राव होता है:
(i) रिलैक्सिन हॉर्मोन:
इस महत्वपूर्ण हॉर्मोन का स्राव भी कपिसलूटियम नामक छोटी ग्रन्थि से होता है । यह गर्भवती स्त्री के प्रसव काल के समय श्रेणी मेखला (Pelvic Gidle) नामक कूल्हे की हड्डी की सन्धि को फैलाकर तथा सम्बन्धित सभी पेशियाँ को फैलाकर शिशु जन्म को आसान बनाता है, तथा उस समय होने वाली प्रसव पीड़ा को कम करता है ।
(ii) ईस्ट्रोजेन्स (Estrogen):
यह यौवनावस्था से लेकर रजोनिवृत्ति (45 वर्ष) की आयु तक स्रावित होता रहता है । इसे विकास हॉर्मोन भी कहते हैं, क्योंकि यह मादाओं के सभी जनन अंगों व लैंगिक लक्षणों के विकास को प्रेरित करता है । इसी के प्रभाव से यौवनावस्था पर लड़कियों में स्तनों, गर्भशय योनि आदि का समुचित विकास होता है । इसके ही अधिक या कम स्राव से मासिक धर्म में अनियमितता आ जाती है ।
(iii) प्रोजेस्टीय हॉर्मोन (Progestin Hormones):
इस हॉर्मोन क स्राव कॉर्पझूलटियम नामक पीली अस्थि से होता है । यह गर्भ धारण से सम्बन्धित लक्षणों के विकास को प्रेरित करता है । यदि गर्भाधान हो जाता है, तब मासिक स्राव बन्द हो जाता है, तथा यह रक्त भूण के पोषण में काम आने लगता है ।
(3) आमाशय – आँत की श्लेष्मिका (Gastro-Intestinal Mucosa):
आमाशय तथा आँत की भीतरी पर्त श्लेष्मिका झिल्ली (Mucosa) पर अनेक सूक्ष्म अन्त: स्रावी ग्रन्धियाँ होती हैं, जो आमाशय, यकृत, अग्न्याशय, पित्ताशय आदि अंगों की गतिविधियों पर नियन्त्रण करती हैं ।
इसके लिए निम्न हार्मोन का स्राव किया जाता है:
(i) सीक्रिटिन (Secretin):
जब आमाशय से भोजन काइम के रूप में ग्रहणी में प्रवेश करता है, तब ग्रहणी की कोशिकाएँ सीक्रिटिन नामक हार्मोन का स्राव करती हैं । यह जठर ग्रन्थियाँ को भी पेटिसन के स्राव हेतु उत्तेजित करता है, लेकिन HCI के स्राव को रोकता है ।
(ii) कोलिसिस्टोकाइनिन (Cholecystokinin):
आँत की श्लेष्मिका द्वारा कोलिसिस्टोकाइनिन नामक हॉर्मोन का स्राव किया जाता है । यह मुख्यत: अग्नाशय को पाचन एन्वाइमों के स्राव के लिए पित्ताशय को सिकुड़ने के लिए प्रेरित करता है ।
(iii) गैस्ट्रिन (Gastrin):
भोजन के आमाशय में पहुँचने पर आमाशय की ग्रथियों द्वारा गैस्ट्रिन नामक हॉर्मोन का स्राव किया जाता है । यह रक्त में युका होकर पेप्सिन (Pepsin) तथा HCI के स्राव के लिए उत्तेजित करता है ।