Read this article in Hindi to learn about the various factors affecting the conditions of growth in an individual.

1. आनुवांशिकता (Heredity):

शिशु की अभिवृद्धि में सबसे मुख्य कारक या दशा उसकी आनुवांशिकता है । इससे ही यह निर्धारित होता है, कि वृद्धि को प्राप्त होने पर कोई निषिक्त कोष मानव प्राणी बनेगा या पशु, पशुओं में कौन-सा पशु बनेगा, मानव बनेगा तो क्या नर या मादा और उसके आकार, लम्बाई-चौड़ाई चेहरा किस पर होंगे माँ-बाप पर या पितामह पर अथवा किसी दूसरे पूर्वज से मिलते-जुलते होंगे ।

अत: कहा जा सकता है, कि मानव शिशु का लिंग आकार नैन-नवा आदि उसकी आनुवांशिकता पर निर्भर करते हैं । यह एक ऐसी दशा है, जिसको सुधारने के लिए मानव कोई विशेष प्रयास नहीं कर सकता है ।

2. भोजन (Food):

धूणावस्था व गर्भावस्था में जीव माँ से ही अपना भोजन प्राप्त करता है । अतएव गर्भवती स्त्री को हर तरह से सन्तुलित व उपयुक्त भोजन देना आवश्यक है । सन्तुलित भोजन में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट तथा चर्बी के अलावा अनेक प्रकार के विटामिनों तथा लवणों का होना भी आवश्यक है, क्योंकि इन सभी का शिशु के सन्तुलित विकास में महत्वपूर्ण योगदान होता है ।

जन्म लेने के पश्चात् मानव शिशु अपनी वृद्धि के लिए बाहर से भोजन प्राप्त करता है । शुरू के कुछ वर्षों में शिशु की वृद्धि के लिए माँ का भोजन उत्तम माना गया है । ये न मिल पाने पर उसे बकरी, गाय, या डिब्बे वाला दूध दिया जाता है । सभी अवस्थाओं में दूध ऐसा होना चाहिये, जो शिशु आसानी से हजम कर ले ।

एक वर्ष की उम्र के पश्चात् शिशु को क्रमश: माँ के दूध के अलावा दूसरा भोजन भी दिया जा सकता है । इस आयु में उसके भोजन का ध्यान जरूर रखना चाहिये ।

3. अन्तःस्त्रावी ग्रन्थियों के न्यासर्ग (Hormones of Endocrine Glands):

मानव की शारीरिक तथा मानसिक वृद्धि में भिन्न-भिन्न अन्त स्रावी ग्रथियों से निकलने वाले न्यासर्गो का महत्वपूर्ण योगदान होता है । मानव अभिवृद्धि पर पोष ग्रन्थि, तथा यौन ग्रथियों के न्यासर्गो का विशेष रूप से प्रभाव पडता है । पोष अस्थि के द्वारा दूसरी ग्रथियों की प्रक्रिया का नियमन होता है ।

थायरॉयड अथवा गलग्रन्थि ऑक्सीजन के प्रयोग में मदद करती है । यदि शरीर में इसकी कमी आ जाये तो मस्तिष्क की वृद्धि रुक जाती है, तथा शरीर का आकार नहीं बढ़ता है । यौन ग्रथियों के न्यासर्गो से मानव की लिंग सुलभ शारीरिक विशेषताओं का विकास होता है ।

4. व्यायाम या अभ्यास (Exercise):

मानव वृद्धि में भिन्न-भिन्न प्रकार के खेलों व व्यायामों का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है । इसके द्वारा जो शारीरिक क्रियाएँ होती हैं, उससे हृदय की धड़कन रक्तचाप व श्वांस गति में वृद्धि होती है, जिससे शरीर के समस्त पोषों में रक्त पहुँचता है, तथा उनमें वृद्धि की गति बढ़ती है ।

माँसपेशियों की अभिवृद्धि तो लगभग पूर्ण रूप से अभ्यास व व्यायाम पर निर्भर करती है । अतएव इनके समुचित विकास के लिए समस्त व्यक्तियों को सभी आयु वर्गों में किसी-न-किसी तरह का व्यायाम करना चाहिए । व्यायाम इस तरह का हो, जिससे शरीर की समस्त माँसपेशियों पर जोर पड़ जाये तथा विशेष माँसपेशियाँ बहुत ज्यादा थक भी न जायें ।

व्यायाम या अभ्यास का शारीरिक विकास पर इतना ज्यादा प्रभाव पड़ता है, कि उनके अभाव में कितनी अच्छी मात्रा में सन्तुलित भोजन मिल जाने पर भी बालकों किशोरों व युवकों का अच्छा शारीरिक विकास सम्भव नहीं हो सकता है ।

5. संकलन तथा स्नायु-मण्डल का विकास:

जैसा कि बताया गया है, परिपक्वता की दशा में वृद्धि तो होती है, साथ-ही-साथ मानव शरीर की भिज्ञाभिल क्रियाओं में सकलन भी प्रदर्शित होता है । इस संकलन में उन समस्त कार्यों की आवश्यकता होती है, जिनमें मानव शरीर के एक से अधिक अंग कार्य करते हैं ।

विकास एक ऐसी सतत् प्रक्रिया है, जो कि अंनेक कारकों से प्रभावित होती है । इनमें से कुछ कारक स्वतन्त्र प्रकृति के होते हैं, तथा कुछ कारक पारम्परिक । अत: क्रियाओं के अन्तर्गत शारीरिक विकास को प्रभावित करते हैं । कुछ कारक स्वतन्त्र रूप से मानसिक विकास को प्रभावित करते हैं ।

यहाँ हम विकास को प्रभावित करने वाले कुछ प्रमुख तत्वों की अग्र चर्चा करेंगे:

(i) आनुवांशिकता (Heredity):

इस सन्दर्भ में डिक मेयर लिखते हैं, कि वंशानुगत कारक जन्मगत विशेषताएँ होती हैं, जो कि बालक के अन्दर जन्म से ही पायी जाती हैं । वंशानुगत कारकों का प्रभाव जीवन के प्रारम्भ के समय अर्थात् गर्भाधान के समय ही नहीं अपितु जीवनपर्यन्त चक्र के अन्तर्गत चलता है ।

माता के रज एवं पिता के वीर्य की भूमिका वंशानुक्रम को निर्धारित करती है । प्राणी के विकास में वंशानुगत शकिायाँ प्रधान तत्च होने के कारण प्राणी के मौलिक स्वभाव एवं उसके जीवन-चक्र की गति को नियन्त्रित करती हैं ।

इन वंशानुक्रम तत्वों को प्राणी की संरचना एवं क्रियात्मकता से सम्बन्धित सम्पत्ति एवं श्रम समझना चाहिये क्योंकि इन्हीं तत्वों की सहायता से प्राणी अपने विकास की जन्मजात ‘अर्जित क्षयताओं का उपयोग कर पाता है । प्राणी का रंग-रूप, लम्बाई, अन्य शारीरिक विशेषताएँ बुद्धि, तर्क, स्मृति तथा अन्य मानसिक योग्यताओं का नि धारण वशानुक्रम द्वारा ही होता है ।

(ii) वातावरण (परिवेशीय) (Environment):

वंशानुक्रम से प्राप्त होने वाले गुणों का विकास पूर्ण रूप से अपोक्षित वातावरण में ही हो पाता है । शारीरिक रूप से विकास भौतिक वातावरण के अन्तर्गत होता है । उदाहरणार्थ – यदि आपके घर वातावरण में भोजन, घर, हवा, पानी, पेड़-पौधों आदि की उपलब्धि है, तो आपका मन प्रसन्नचित रहता है ।

आपके संवेगों की अभिव्यक्ति भी बेहतर ढंग से होती है, जिस कारण विकास के सुअवसरसे में उत्तरोत्तर वृद्धि होती है । वातावरण में वे सभी बाह्य शक्तियाँ प्रभाव परिस्थितियाँ दशाएँ आदि सम्मिलित हैं, जो मानव व्यवहार शारीरिक विकास एवं मानसिक तीनों को ही प्रभावित करती है ।

यह सत्य है, कि अन्य स्थानों के वातावरण की अपेक्षा घर का वातावरण सभी प्रकार के विकास में सहायक होता है, न केवल ये विकास की परिस्थितियाँ कुछ समय वरन् जीवन पर्यन्त प्रभाव डालती हैं । सामाजिक वातावरण में परिवार, पड़ोस, पाठशाला आदि का समायोजन होता है, जिनका बालक पर विशिष्ट प्रभाव पड़ता है ।

वातावरण का प्रभाव अभियोजनशीलता पर भी प्रभाव पड़ता है । वंशानुक्रम से प्राप्त गुणों का संशोधन वातावरण के द्वारा ही होता है, तथा विकास सम्बन्धी शारीरिक एवं मानसिक लक्षणों पर प्रभाव भी वंशानुक्रम एवं वातारण द्वारा ही निधारित होता है ।

मानव प्राणियों में सामाजिक व्यवहार को समझने व जानने की चेष्टा सदैव ही उत्तेजित करती रही है । निरन्तरतापूर्ण इस प्रक्रिया में मानव सामाजिक व्यवहार के आधार एवं मानसिक प्रक्रियाओं सम्बन्धी तत्वों से जुड़ा रहा है । इन प्रक्रियाओं में अनुकरण भी एक महत्वपूर्ण कारक है, अर्थात (Imitation) ।

सामाजिक व्यवहार को सीखने में अनुकरण का विशेष स्थान है । भारतीय सस्कृति हो अथवा बाह्य संस्कृति, उसको स्वीकार करने में अपनाने में अथवा उसका वरण करने में अनुकरण ही एक ऐसी प्रक्रिया है, जो मनुष्य को सामाजिक व्यवहार को सीखने में प्रोत्साहित करती है । अनुकरण एक व्यापक शब्द है ।

इस सन्दर्भ में मैक्डूगल लिखते हैं, ”एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति के व्यवहार शारीरिक गतियाँ आदि की नकल करना ही अनुकरण है ।” अनुकरण के आशय को हम कुछ अन्य परिभाषाओं के आधार पर समझने का प्रयास करेंगे ।

ये परिभाषाएँ निम्नवत् हैं:

मीड के अनुसार, ” चेतनतया दूसरे के कार्यों एवं भूमिकाओं को अपनाना अनुकरण है ।”

ब्रिट (Britt) के अनुसार, ” जो व्यवहार दूसरों की उपस्थिति में होता है, उन्हें ही अनुकरण कहते हैं ।”

इस तरह हम देखते हैं, कि अनुकरण में व्यक्ति दूसरी के व्यवहारों का अनुकरण (Imitation) या नकल (Copy) करता है, अर्थात अनुकरण के लिए किसी उत्तेजना का होना आवश्यक है ।

हुलयालकर (Hulyalkar) के अनुसार, ”अनुकरण का अर्थ दूसरे के व्यवहार का पुनरुत्पादन एव पुनरावृति है ।”

थाउलेस (R.H.Thouless) के अनुसार, ”अनुकरण एक प्रतिक्रिया है, जिसके लिए उत्तेजना दूसरे की समान प्रतिक्रिया का प्रत्यक्षीकरण है ।”

लिंटन (R.Linton) के विचार से, “दूसरों के व्यवहार की नकल करना ही अनुकरण है, भले ही अनुकरणकर्त्ता को इस व्यवहार का परिचय प्रत्यक्ष निरीक्षण या इसके बारे में किसी से सुनकर या एक अधिक प्रगतिशील समाज में इसके बारे में पढ़कर प्राप्त होता हो ।”

अनुकरण की विशेषताएँ (Characteristics of Imitation):

अनुकरण की उपर्युका परिभाषाओं के आधार पर इसकी अग्रलिखित विशेषताएँ (Characteristics) दृष्टिगोचर होती हैं:

1. अनुकरण करने वाला दूसरों को देखकर ही अनुकरण करता है । यह अनुकरण चेतन भी हो सकता है, और अचेतन या अनायास भी ।

2. अनुकरणकर्त्ता अनुकरण की जाने वाली क्रिया को पहले से नहीं बल्कि उस क्रिया को देखकर ही अनुकरण करता है ।

3. अनुकरण की प्रक्रिया में दूसरे के व्यवहार की देखा देखी वैसा ही करने का प्रयास किया जाता है । अत: उत्तेजना के द्वारा दूसरों का व्यवहार का होना भी अनिवार्य है ।

अनुकरण की प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले कारक अथवा तत्व (Factors Influencing the Process of Imitation):

(i) प्रेक्षणात्मक अनुकरण (Observation Imitation):

प्रेरणा द्वारा किसी का अनुकरण करना प्रेक्षणात्मक अधिगम की श्रेणी में आता है, अर्थात् अधिगम के इस रूप को पहले अनुकरण (Imitation) कहा जाता था । इस अधिगम की खोज करने में बंदूरा (Bandra) एवं उनके सहयोगियों का योगदान था ।

इस सन्दर्भ में मैक्डूगल का नाम भी अग्रणी है । उनके अनुसार ”अनुकरण केवल मनुष्य द्वारा उन क्रियाओं जो दूसरों के शरीर सम्बन्धी व्यवहार से सम्बन्धित है, की नकल करने से लागू होता है ।”

(ii) सामाजिक स्वीकृति (Social Recognition):

प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा होती है, कि उसको समाज में पहचान एवं मान्यता मिले । अत: इस बात को ध्यान में रखकर अनेक प्रकार के सामाजिक कार्य, जैसे – गरीबों की सहायता बड़ों का आदर या अन्य ऐसे ही अनेक प्रकार के कार्य करता है, जिसे देखकर अन्य व्यक्ति भी अनुकरण करते हैं ।

(iii) नवीनता (Novelty):

प्राणी का स्वभाव (Nature) नवीनता की ओर झुकना या आकर्षित होना है । अत: नवीन पोशाक, फैशन, बातचीत के ढंग आदि के अनुकरण की ओर व्यक्ति का झुकाव या आकर्षण रहता है । पश्चिमी सभ्यता (Western Civilization) या फिल्मी जगत (Film World) का अनुकरण विशेषकर नवीनता के कारण ही होता है ।

(iv) प्रहसन (Laughter):

हँसने और हँसाने के ख्याल से भी दूसरों की चाल-ढाल आदि का अनुकरण किया जाता है । इस तरह के अनुकरण में अनुकरणकर्त्ता को सिर्फ आनन्द (Pleasure) आता है, उसके किसी उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती । जैसे-शिक्षक के डाँटने पर उनके कक्षा से चले जाने पर उनका अनुकरण कर विधार्थियों द्वारा मजाक उड़ाना इसी तरह का अनुकरण है ।

(v) अनुकरण करने वाले की योग्यता (Ability of the Imitator):

अनुकरण करने की योग्यता का पैमाना अनुकरणकर्त्ता की क्षमता या उसकी योग्यता पर ही निर्भर करता है । किसी भी कार्य की नकल करना सरल नहीं होता । प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता एवं अभिरुचि को ध्यान में ही रखकर किसी क्रिया को पूर्ण कर पाता है । अत: अनुकरण करने की योग्यता का विशेष महत्च है ।

(vi) परिवेशीय अनुकरण (Situational Imitation):

अनुकरण करने में परिवेश का भी अत्यन्त महत्व होता है । इसमें समय एवं स्थान जैसे तत्वों का निहित रहना अत्यन्त अनिवार्य है । माता-पिता द्वारा बच्चों पर नियन्त्रण एवं उनको अच्छे संस्कार देना, यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें बच्चे माता-पिता की अनुपस्थिति में भी रहकर उसी प्रकार का आचरण करते हैं, जैसा कि माता-पिता ने प्रदान किया है ।

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