Read this article in Hindi to learn about the meaning and stages of physical development in an individual.

शारीरिक विकास का अर्थ (Meaning of Physical Development):

शारीरिक विकास के सन्दर्भ में आपने पूर्व के अध्याय में विस्तृत रूप से जानकारी प्राप्त की एवं मानव विकास की विभिन्न अवस्थाओं को भी समझा तथापि संक्षिप्त रूप में शारीरिक विकास के अर्थ को समझ लिया जाये । इस सन्दर्भ में हरलॉक लिखते हैं, “शारीरिक विकास का अर्थ परिवर्तन की उस उन्नतिशील शृंखला से है, जोकि परिपक्वता के एक निश्चित लक्ष्य की ओर अग्रसर होती है ।”

(”Development consist of progressive series of charges of orderly coherent type towards the goal of maturity.”)

इसी प्रकार गेसेल लिखते हैं, ”विकास केवल प्रत्यय या धारणा ही नहीं है । विकास का निरीक्षण मूल्याकन व मापन किया जा सकता है । विकास का मापन शारीरिक एवं व्यावहारिक दोनों दृष्टियों से किया जा सकता है, परन्तु विकासात्मक क्षमताओं की दृष्टि से व्यावहारिक मापन सर्वाधिक महत्वपूर्ण है ।”

इस प्रकार स्पष्ट है, कि शारीरिक विकास के परिणामस्वरूप व्यक्ति के अन्तर्गत नवीन क्षमताओं, योग्यताओं, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक प्रात्यक्षिक, नैतिक एवं चारित्रिक विशेषताओं से अरि भप्राय होता है ।

विकासात्मक अवस्थाओं का अध्ययन (Study of Development Stages):

विकास के कई चरण होते हैं, और उन्हीं चरणों के अनुसार मानव का विकास प्रारम्भिक अवस्था से होकर वृद्धावस्था तक होता है । मनोवैज्ञानिकों ने गर्भावस्था से युवावस्था तक बालक की विकास की विभिन्न अवस्थाओं को स्पष्ट किया है ।

मनोवेत्ताओं ने विकास की अवस्थाओं को दो मुख्य अवस्थाओं में विभाजित किया है:

(i) जन्म से पूर्व अर्थात गर्भावस्था,

(ii) जन्म के पश्चात् विकास की अवस्था ।

मनोवैज्ञानिकों ने विकास की इन अवस्थाओं को पुन: तीन अवस्थाओं में बाँटा है:

(i) गर्भधारण से लेकर 2 सप्ताह तक की अवस्था ।

(ii) 3 सप्ताह से लेकर 24 सप्ताह तक की अवस्था ।

(iii) 24 सप्ताह से जन्म तक की अवस्था ।

इसी प्रकार जन्म के पश्चात् की अवस्थाओं को भी मनोवैज्ञानिकों ने पाँच अवस्थाओं में विभाजित किया है:

(i) शैशवावस्था,

(ii) बचपनावस्था,

(iii) बाल्यावस्था,

(iv) किशोरावस्था, तथा

(v) पश्चात् किशोरावस्था ।

बाल विकास के अध्ययन के अन्तर्गत जन्म से लेकर दो सप्ताह तक की अवस्था को शैशवावस्था तथा दो वर्ष की अवस्था को बचपनावस्था तथा दो वर्ष से लगभग 11 अथवा 12 वर्ष की अवस्था को बाल्यावस्था कहा गया है । इसी प्रकार 12 से 18 वर्ष तक की अवस्था को किशोरावस्था तथा 18 से 21 वर्ष तक की अवस्था को पश्चात् किशोरावस्था कहा गया है ।

जन्म से पूर्व की विकास अवस्था में विकास की तीन प्रक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है:

प्रथम – शारीरिक विकास,

द्वितीय – गत्यात्मक विकास, एवं

तृतीय – संवेदात्मक विकास ।

बाल विकास में गर्भस्थ शिशु के विकास का अध्ययन किया जाता है । इसमें गर्भस्थ शिशु की लम्बाई, चौड़ाई एवं उसका भार बढ़ता है । इसी को शारीरिक विकास कहते हैं ।

इसी प्रकार जन्म से लेकर बाल्यावस्था तक की अवस्था में शारीरिक विकास, संवेदानिक विकास, नैतिक विकास, सामाजिक विकास, मानसिक विकास, गत्यात्मक विकास एवं भाषा के विकास का दो मुख्य रूपों में अध्ययन किया जाता है, तथा बाल्यावस्था से किशोरावस्था तक के विकास में शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, नैतिक, संवेगात्मक विकास प्रमुख हैं ।

गर्भकालीन एवं जन्मोपरान्त शारीरिक स्थितियाँ (Physical Stages of Prenatal and Postnatal Development):

i. गर्भावस्था (Pregnancy Stages):

वैश्विक परिप्रेक्ष्य में मानव विकास का प्रथम सूत्रपात्र माता के गर्भाशय में शिशु भ्रूण के रूप में होता है, अर्थात् स्त्री के गर्भ में पल रहे शिशु के प्रारम्भिक निर्माण का मूल रूप शिशु भ्रूण पुकारा जाता है । भ्रूण में ही शिशु का निर्माण होता है । भ्रूण के सूत्रपात काल से ही स्त्री के गर्भाशय में शिशु के जन्म लेने की अवस्था गर्भावस्था कहलाती है ।

जिस स्त्री को यह गर्भावस्था रहती है, उस गर्भवती स्त्री के शरीर से ही भ्रूण का पोषण होता है । वर्तमान वैज्ञानिक युग में परखनली द्वारा गर्भाधान कराकर भ्रूण को शिशु स्वरूप प्रदान करते हैं, आज विश्व में अनेक परखनली बच्चे जीवित हैं ।

परखनली गर्भाधान का यह तरीका बहुत भयशील है । मातृत्व स्त्री का सहज एवं स्वाभाविक गुण है, स्त्री जन्मदायिनी एवं जीवनदायिनी होती है, प्रकृति की ओर से ही स्त्री को सृष्टि का यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य मिला हुआ है ।

ii. प्रसवपूर्व अवस्था (Pre Stage of Pregnancy):

प्रसवपूर्व गर्भ में शिशु का विकास पुरुष कोष और स्त्री कोष के संयोग से प्रारम्भ होता है । पुरुष कोष को शुक्राणु कहा जाता है । इसका निर्माण पुरुष के अण्डकोष में होता है, स्त्री अण्डाणु अण्डाशय में उत्पन्न होता है, शुक्राणु का अण्डाणु से संयोग होने को गर्भाधान या ‘उर्वरता’ कहते हैं । यहीं से गर्भावस्था का प्रारम्भ होता है ।

iii. गर्भाशय तक गतिशीलता (उर्वरक प्रक्रिया; Fertilization Process):

उपर्युक्त चित्र में स्त्री अण्डाणु कोष एवं शुक्राणु कोष प्रक्रिया को दर्शाया गया है । विदित हो कि स्त्री अण्डाणु अत्यन्त सूक्ष्म होता है । मात्र इसको देखने का साधन सूक्ष्मदर्शी यन्त्र ही है । गोलाकार आकृति वाले इस अण्डाणु की परिधि लगभग 125 मिली मीटर के आकार में होती ।

यह एक कवच अथवा खोल के अन्दर सुरक्षित रहता है, जिसके अन्दर भोज्य पदार्थ की एक तह होती है, जबकि शुक्राणु का आकार इसके कई गुना छोटा होता है । लम्बी पूंछ के आकार में दिखने वाली शुक्राणु सदैव गतिशील अवस्था में रहता है ।

चूंकि अण्डाणु की स्वयं गति न होने के कारण शुक्राणु को अण्डाणु से संयोग स्थापित करने हेतु गतिशील अवस्था में रहना होता है, एक अण्डाणु को डिम्ब नलिका में होकर गर्भाशय तक पहुँचने की पाँच अवस्थाओं से गुजरना होता है । इसे चित्र द्वारा समझा जा सकता है ।

यह प्रक्रिया सर्वप्रथम गर्भावस्था से प्रारम्भ होकर चलती रहती है । यदि कोई स्त्री गर्भावस्था से गतिशीलता से रहती है, तो उसका स्वास्थ्य अत्यधिक गतिशील होकर चलता है । यह अवस्था बहुत सूक्ष्म क्षणों के लिए होती है । इसके अतिरिक्त यह अवस्था अत्यधिक चिन्तित समय की तथा विचित्र प्रकार की होती है । यह प्रत्येक गर्भावस्था में होती रहती है ।

उपर्युक चित्र में अण्डाणु की डिम्न नलिका सम्बन्धी प्रक्रिया को दिखाया गया है । अण्डाणु की अपेक्षा शुक्राणु का आकार अत्यन्त सूक्ष्म होता है । संभोग के समय लाखों शुक्राणु स्त्री की योनि के अन्दर प्रविष्ट होते हैं । इनमें से कुछ शुक्राणु गर्भाशय से होकर अण्डवाहिनी में प्रवेश पा लेते हैं ।

इनमें से किसी शुक्राणु को यदि परिपक्व अण्डाणु मिल जाता है, तो गर्भ स्थिति होने की सम्भावना उत्पन हो जाती है, तथा अण्डाणु न मिलने की स्थिति में शुक्राणु 24 घण्टे में नष्ट हो जाते हैं । गर्भ स्थिति होने के क्षण से भ्रूण का विकास प्रारम्भ हो जाता है, और ज्ञात होने तक लगभग दो सप्ताह का हो जाता है ।

गर्भकाल के नौ माह को शिशु की विकासात्मक अवस्थाओं के अन्तर्गत तीन भागो में विभाजित किया गया है:

(i) प्रारम्भिक तीन माह की अवस्था (Preliminary Three Months Ages):

प्रारम्भिक काल में भ्रूण स्त्री के मूल कोष की बीच की सतह में उपस्थित खाद्य-सामग्री को ग्रहण करता है । छ: दिन के अन्त तक भ्रूण अनेक सूक्ष्म कोषों का एक समूह बन जाता है, जो कि गर्भाशय की कोमल एवं मोटी सतह में धँस जाता है ।

गर्भ स्थापना के नवें या दशवें दिन उसकी असन्तुलित वृद्धि प्रारम्भ हो जाती है । अँगुलियों जैसे कई अंग बनने लगते हैं ये । अंग शिशु भ्रूण को गर्भाशय की आन्तरिक सतह से कड़ा चिपका देते हैं । इन्हीं से गर्भनाल की रचना प्रारम्भ होती है ।

गर्भाथ्यान के दूसरे सप्ताह में कोषों का मूल समूह कोषों के तीन विभिन्न समूहों में परिवर्तित होना प्रारम्भ हो जाता है । इनमें से कुछ कोष तो स्वयं शिशु का रूप लेंगे और कुछ गर्भ नाल का रूप धारण करेंगे स्त्री रक्तवाहिनी से भोजन तथा आक्सीजन इसी नाल से गुजरकर शिशु तक पहुँचता है ।

तीसरे सप्ताह में कोषों का वह समूह जो शिशु के रूप में विकसित होता है, एक चौरस नली के आकार का तथा इतना बडा हो जाता है, कि आँख से देखा जा सकता है । इससे शरीर में कई अंगों के आरम्भिक चिन्ह दिखाई देने लगते हैं ।

चौथे सप्ताह में शिशु बहुत तेजी से वृद्धि करने लगता है । यह लम्बाई में 4 मिली मीटर तक बढ़ जाती है । हृदय, यकृत, पाचन नली, मस्तिष्क तथा फेफड़ों का स्वरूप ग्रहण कर देते हैं । इसी समय स्त्री को प्राय: यह बोध होने लगता है, कि वह गर्भवती है ।

पाँचवें सप्ताह में शिशु झुककर एक छोटे व मोटे अर्द्धवृत्त के समान दिखाई देता है । रीढ़ की हड्डी का बनना प्रारम्भ हो जाता है । शिशु का सिर अधिक तीव्र गति से बढ़ता है । छठे सप्ताह तक शिशु लगभग एक इन्च का हो जाता है, शिशु के एक पूँछ व भेठ भी होती है ।

सातवें सप्ताह में शिशु के चेहरे का रूप अधिक स्पष्ट हो जाता है । कान व पलक भी बनने लगते हैं । आठवें सप्ताह के अन्त तक गर्भनाल व झिल्ली का निर्माण पूर्ण हो चुका होता है । झिल्ली की एक थैली बन जाती है, जिसके अन्दर तरल पदार्थ भरा होता है ।

इसी में शिशु तैयार रहता है । तृतीय माह में शिशु का विकास प्रारम्भ हो जाता है । यह समय त्वचा पतली एवं पारदर्शी का होता है । इस माह के अंत तक शिशु लगभग 6.25 सेमी. लम्बा हो जाता है, तथा भार लगभग आधा औंस होता है ।

(ii) चार से छ: माह की गर्भावस्था (Pregnancy of Four to Six Months):

यह वह अवस्था होती है, जिसमें स्त्री के गर्भवती होने का स्पष्टीकरण हो जाता है, कि स्त्री अब गर्भवती है । गर्भाशय अब तक वस्ति प्रदेश की हड्डियों के पीछे मुड़ा हुआ था किन्तु अब इन हड्डियों के किनारों से ऊपर उठकर वृद्धि करता है, तथा एक गोलाकार सूजन का रूप लेकर ऊपर उठने लगता है ।

गर्भकाल का यह समय स्त्री के लिए उत्तम होता है । इसमें स्त्री को अपनी सुन्दरता का बोध होने लगता है । उसकी गोलाकार परिधि उसकी त्वचा को बहुधा स्वच्छ एवं चिकना बना देती है । इस अवस्था में शिशु में अँगुलियाँ व अँगूठे स्पष्ट रूप से निर्मित हो चुके होते हैं । उनमें छोटे-छोटे नाखून भी दिखाई पड़ने लगते हैं ।

शिशु का सिर अधिक बड़ा होने लगता है, सिर पर छोटे-छोटे रोये, मसूड़े में गहराई पर दाँतों का बनना आदि शुरू हो जाता है । चार माह में शिशु की लम्बाई 10.25 सेमी. से 12.50 सेमी. के मध्य एवं भार 110 ग्राम के करीब हो जाता है ।

इसके अतिरिक्त माँसपेशियों में भी सक्रियता आ जाती है । अठारह से बीस सप्ताह की अवधि में शिशु के हृदय की धड़कन को स्टैथिस्कोप के द्वारा महसूस किया जा सकता है । इस समय शिशु हाथ-पैर फैलाता है ।

इस समयावधि में अत्यन्त रोमांचक घटनाएं होती हैं । माता को भी ये भली प्रकार अनुभव होने लगता है, कि उसके अन्दर कोई अन्य भी है । शिशु गति करने लगता है । प्रारम्भ में ऐसा अनुभव होता है, जैसे कोई चिड़िया पख फड़फड़ा रही हो केवल एक ही दिन ऐसा होता है, उसके बाद नहीं । परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि किसी प्रकार की गड़बड़ है ।

इस अवधि में शिशु की गतिशीलता हर समय अनुभव नहीं होती, केवल सोते या आराम करते समय ही अधिक अनुभव होती है । जैसे-जैसे सप्ताह व्यतीत होते जाते हैं, गति अधिक तीव्र होती जाती है । पतले शरीर वाली स्त्री जब पीठ के बल लेटती है, तो शिशु की गति स्पष्ट दिखाई देने लगती है । बीसवें सप्ताह तक शिशु की लम्बाई लगभग 21 से॰मी॰ तक हो जाती है, एवं भार औसतांक तीन सौ ग्राम तक हो जाता है ।

(iii) छ: माह बाद प्रसव काल की अवस्था (Stages of Pregnancy Period after Six Months):

छ: माह के पश्चात् शिशु का शरीर लम्बाई में बड़ी तेजी से बढ़ने लगता है । लगभग आठवें माह से पूर्व तक उसकी त्वचा झुर्रीदार व लाल होती है । अन्तिम दो माह में उसके शरीर में वसा तैयार होने लगता है, तथा उसका शरीर सुडौल व भरा हुआ दिखाई देने लगता है । छठवें माह से लेकर जन्म के कुछ समय पूर्व तक उसकी त्वचा कोमल रोये से आच्छादित रहती है ।

शिशु के इस अवधि में आने तक वह हिलना-डुलना प्रारम्भ कर देता है । उसके क्रीड़ा करने से माँ को उसके वास्तविक प्रहार का अनुभव होने लगता है । सातवाँ माह होने तक शिशु अपनी एक स्थिति ग्रहण कर लेता है । इसी स्थिति में उसे जन्म लेना पड़ता है । कुछ अपवादों में शिशु अपरिपक्व अवस्था में ही जन्म ले लेता है, किन्तु सात माह के शिशु के जीवित रहने की सम्भावना बनने लगती है ।

आठवें माह के शिशु की जीवित रहने की सम्भावना रहती है, किन्तु चिकित्सकों को इसके जन्म लेने के पश्चात् शिशु गहन चिकित्सा विभाग में रखना पड़ता है, तथा विशेष प्रकार का उपचार देना पड़ता है । नवे माह में शिशु की त्वचा पर स्थित रोयेदार कोमल अंश प्राय: नष्ट हो चुके होते हैं, अर्थात् शिशु अब तक पूर्ण हो चुका होता है ।

उपर्युक्त चित्र में दर्शायी गयी अवधि प्रसवावधि होती है । इसमें माता को कष्ट होने लगता है । गम्भीर संकुचन का अनुभव होना प्रारम्भ हो जाता है । पेडू में कठोरता व खिंचाव का अहसास होने लगता है । यह एक प्रकार का प्रसव पीड़ा प्रदर्शन होता है, जो प्रत्येक गर्भवती स्त्री के साथ होना स्वाभाविक है ।

अन्तिम दो सप्ताहकी अवधि में माता को मूत्र नली पर शिशु का भार महसूस होता है, तथा बार-बार पेशाब जाने की आवश्यकता पड़ने लगती है । पूर्ण गर्भावस्था में उत्पन शिशु की लम्बाई लगभग 20 इंच होती है, तथा औसत भार सात पौण्ड होता है ।

गर्भावस्था की इस अवधि में माता के कुछ आन्तरिक शारीरिक एवं प्रतीकात्मक परिवर्तनों की सम्भावना बढजाती है ।

हॉर्मोन्स में परिवर्तन पचअपच सम्बन्धी परिवर्तन, रक्त अभिसरण में परिवर्तन, पेट की माँसपेशियाँ तथा श्रेणी जोड़ों में परिवर्तन, अधिक नींद आना, जी मिचलना, श्वसन क्रिया में कठिनाई, नाड़ी संस्थान व त्वचा में परिवर्तन, मूत्र नालिका व पेशी कंकाल में परिवर्तन, मासिक धर्म की अनियमितता, चेहरे की कान्ति व पेट के आकार के साथ-साथ स्तनों में भी परिवर्तन होते हैं ।

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